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: ५५३ : जैन साहित्य में गाणितिक संकेतन
|| श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
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१४- रि० यो० १००००० । ३ अर्थात्-मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान के ध्वजदण्ड तक १ लाख योजन कम डेढ़ राजू ऊंचाई प्रमाण है । इसमें स्पष्ट है कि 'रि०' का आशय यहाँ पर घटाने से है। यहाँ १४-३ का अर्थ डेढ़ राजू से है।
गुणा के लिए संकेत-गुणा के लिए 'बक्षाली हस्तलिपि' में 'गु' संकेत का प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'गु' शब्द 'गुणा' अथवा 'गुणित' का प्रथम अक्षर है । यथा-१३
इसका आशय ३४३४३XX ३४३४३४१० है।
'तिलोयपण्णत्ति' में गुणा के लिए एक खड़ी लकीर का प्रयोग किया गया है । यथा १०००x ६६X५००XCXCXCXCXCXCXX८ के लिए इस प्रकार लिखा है।"
%६६.५००।८८८८८८८८। यहाँ पर%0 का आशय १००० है।
'अर्थसंदष्टि' में भी गुणा के लिए यही चिह्न मिलता है । यथा-१६ को २ से गुणा करने के लिए १६।२ लिखा है ।
त्रिलोकसार' में भी गुणा के लिए यही चिह्न मिलता है । यथा--१२८ को ६४ से गुणा करने के लिए १२८।६४ लिखा है ।१६
भाग के लिए संकेत-भाग के लिए 'बक्षाली हस्तलिपि' में 'भा' संकेत का प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'भा' शब्द 'माग' अथवा 'भाजित' का प्रथम अक्षर है। यथा-१० इसका आशय
४० मा १६० | १३ |
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इसका आशय
१३०-४१३१० से है।
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भिन्नों को प्रदर्शित करने के लिए प्राचीन जैन साहित्य में अंश और हर के बीच रेखा का प्रयोग नहीं मिलता है । 'तिलोयपण्णत्ति' में बेलन का आयतन मालम किया है जो आया है। इस १९ को इस ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है--
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१३ बक्षाली हस्तलिपि Folio 47, recto १४ तिलोयपण्णत्ति, भाग १, गाथा १, १२३-१२४ १५ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६ १६ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ ३ १७ बक्षाली हस्तलिपि Folio 42, recto १८ त्रिलोयपण्णत्ति, भाग १, गाथा १,११८
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