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श्री जैन दिवाकर.म्मृति-ग्रन्थ ।।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५५० :
संख्या के अन्त में लिखा जाता था। जैसे ४ और 8 जोड़ने होते थे तो इस प्रकार लिखा जाता था
8
यु 'बक्षाली हस्तलिपि' में पूर्णाक लिखने की यह पद्धति थी कि अङ्क के नीचे १ लिख दिया जाता था, किन्तु दोनों के बीच भाग रेखा नहीं लगाई जाती थी।
जैन ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ति' (ईसा की दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ) में जोड़ने के लिए 'धण' शब्द लिखा है क्योंकि प्राचीन साहित्य में धन के लिए 'धण' शब्द प्रयोग होता था।
जोड़ने के लिए पं० टोडरमल ने 'अर्थसंदृष्टि' में -चिह्न का प्रयोग किया है। यथा log. log. (अं)+१ के लिए उसमें इस प्रकार लिखा है
वर जोड़ने के लिए, विशेषकर भिन्नों के योग में, 'अर्थसंदृष्टि' में खड़ी लकीर का प्रयोग मिलता है। यथा
१ ३ का आशय १+1 से है। घटाने के लिए संकेत-'बक्षाली हस्तलिपि' में घटाने के लिए + संकेत का प्रयोग किया गया है। यह + चिह्न उस अङ्क के बाद लिखा जाता या जिसे घटाना होता था। जैसे २० में से ३ घटाने के लिए इस प्रकार लिखा जाता था
२०
३-+
कुछ जैन ग्रन्थों में भी घटाने के लिए उपरोक्त संकेत का प्रयोग मिलता है परन्तु यह + चिह्न घटायी जाने वाली संख्या के ऊपर लिखा जाता था। आचार्य वीरसेन ने 'धवला' (ईसा की नवीं शताब्दी का ग्रन्थ) में इस प्रकार के संकेत का प्रयोग किया है जो निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट है
....||| सोज्झ माणादो एदिस्से रिण सण्णा"
अर्थात् १ शोध्यमान (अर्थात् घटाने योग्य) होने से इसकी ऋण संज्ञा है ।
घटाने के लिए + चिन्ह की उत्पत्ति के बारे में प्रोफेसर लक्ष्मीचन्दजी जैन का मत है कि यह चिन्ह ब्राह्मी भाषा से बना है । ब्राह्मी भाषा में ऋण के लिए 'रिण' लिखा जाता है और रिण का प्रथम अक्षर रि ब्राह्मीभाषा में लिखा जाता है। अधिक प्रयोग होते-होते इसका रूप +हो गया है।
जैन ग्रन्थों में घटाने के लिए
2 चिन्ह भी मिलता है । यह चिन्ह जिस अङ्क को
१ पं० टोडरमल की अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ६,७, ८, १५, १८, २०, २१ २ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ११ ३ धवला, पुस्तक १०, सन् १९५४, पृष्ठ १५१
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