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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५२४ : १८. सविशेष अपराध को निर्विशेष कहना। १६. प्रायश्चित्त योग्य (सप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के अयोग्य कहना। २०. प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के योग्य (सप्रतिकर्म) कहना । गीता में अज्ञान : गीता के मोह, अज्ञान या तामसिक ज्ञान भी मिथ्यात्व कहे जा सकते हैं। इस आधार पर विचार करने से गीता में मिथ्यात्व का निम्न स्वरूप उपलब्ध होता है १. परमात्मा लोक का सर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों के फल का संयोग करने वाला है अथवा वह किसी के पाप-पुण्य को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४, १५) । २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८), धन परिवार एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५), विपरीत ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर नाशवान शरीर में आत्म-बुद्धि रखना व उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहना जो कि तत्व-अर्थ से रहित और तुच्छ है, तामसिक ज्ञान है (१८-१२) । इसी प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। पाश्चात्य-दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय मिथ्यात्व यथार्थता के बोध का बाधक तत्त्व है । वह एक ऐसा रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को प्रकट नष्ट कर व्यक्ति के समक्ष उसका अयथार्थ किंवा भ्रान्त स्वरूप ही प्रकट करता है। भारत ही नहीं, पाश्चात्य देशों के विचारकों ने भी यथार्थता या सत्य के जिज्ञासु को मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है। पाश्चात्य-दर्शन के नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश करते हैं । चार मिथ्या धारणाएं निम्न हैं (१) जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus)-सामाजिक संस्कारों से प्राप्त मिथ्या धारणाएं। (२) बाजारू मिथ्या विश्वास (Idola Fori)- असंगत अर्थ आदि । (३) व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (Idola Speces)-व्यक्ति के द्वारा बनाई गयीं मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह)। (४) रंगमंच की भ्रान्ति (Idola Theatri)-मिथ्या सिद्धान्त या मान्यताएँ । वे कहते हैं-'इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त करके ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ही ग्रहण करना चाहिए। जैन-दर्शन में अविद्या का स्वरूप जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द मोह भी है। मोह आत्मा की सत् के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर उसे गलत मार्ग दर्शन करता है और उसे असम्यक् आचरण के लि १८ हिस्ट्री आफ फिलॉसफी (थिली), पृ० २८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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