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: ५२१ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विश्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
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में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है । प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी धर्म भी रहे हए हैं तो सामान्य व्यक्ति जिसका ज्ञान अंशग्राही है, इस विपरीत ग्रहण के दोष से बच नहीं सकता क्योंकि उसने वस्तुतत्त्व के जिस पक्ष को ग्रहण किया उसका विरोधी धर्म भी उसमें उपस्थित है। अतः उसका समस्त ग्रहण विपरीत ही होगा; लेकिन इस विचार में एक भ्रान्ति है और वह यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है लेकिन यह तो निरपेक्ष कथन है। एक अपेक्षा की दृष्टि से या जैन पारिभाषिक दृष्टि से कहें तो एक ही नय से वस्तुतत्त्व में दो विरोधी धर्म नहीं होते हैं, उदाहरणार्थ-एक ही अपेक्षा से आत्मा को नित्य और अनित्य नहीं माना जाता है। आत्मा द्रव्याथिक-दृष्टि से नित्य है तो पर्यायाथिक-दृष्टि से अनित्य है । अतः आत्मा को पर्यायाथिक दृष्टि से भी नित्य मानना, यह विपरीत ग्रहण मिथ्यात्व है । बुद्ध ने भी विपरीत ग्रहण को मिथ्या दृष्टित्व माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत ग्रहणों को स्पष्ट किया है।" गीता में भी विपरीत ग्रहण को अज्ञान कहा गया है । अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म के रूप में मानने वाली बुद्धि को गीता में तामस कहा गया है (१८॥३२)।
३. वैनयिक-बिना बौद्धिक गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमोपनियमों को स्वीकार कर लेना, वैनयिक मिथ्यात्व है । यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है । वैनयिक मिथ्यात्व को बौद्ध-परम्परा की दृष्टि से शीलवत परामर्श भी कहा जा सकता है। इसे क्रियाकाण्डात्मक मनोवत्ति भी कहा जा सकता है। गीता में इस प्रकार के केवल रूढ व्यवहार की निन्दा की गई है। गीता कहती है ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण को बढ़ाने वाली और त्रिगुणात्मक होती है ।१२
४. संशय-संशयावस्था को भी जैन विचारणा में मिथ्यात्व माना गया है। यद्यपि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में संशय को नैतिक विकास की दृष्टि अनुपोदेय माना गया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन विचारकों ने संशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को भुला दिया है। जैन विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय को ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। प्राचीनतम जैनागम आचारांग सूत्र में कहा गया है "जो संशय को जानता है वही संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है जो संशय को नहीं जानता वह संसार के स्वरूप का भी परिज्ञाता नहीं हो सकता। लेकिन जहाँ तक साधनात्मक जीवन का प्रश्न है हमें संशय से ऊपर उठना होगा। जैन विचारक आचार्य आत्मरामजी महाराज आचारांग सूत्र की टीका में लिखते हैं.-"संशय ज्ञान कराने में सहायक है परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके केवल सन्देह करने की कुटिल वृत्ति अपना लेता है, तो वह पतन का कारण बन जाता है।"* संशयावस्था वह स्थिति है जिसमें प्राणी सत् और असत् की कोई निश्चित धारणा नहीं रखता है । सांशयिक अवस्था अनिर्णय की अवस्था है । सांशयिक ज्ञान सत्य होते हुए भी मिथ्या ही होगा । नैतिक दृष्टि से ऐसा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है यह नहीं कहा जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिण्डोले की भाँति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ करता है । गीता भी यही कहती है कि संशय की अवस्था में लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। संशयी आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है ।१५
११ अंगुत्तरनिकाय ११११ १३ आचारांग ११५॥१११४४ १५ गीता ४४४०
१२ गीता २१४२-४५ १४ आचारांग, हिन्दी टीका, प्रथम भाग, पृ० ४०६
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