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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
वहाँ से अनेक स्थानों पर होते हुए आप खाचरोद पधारे और वहीं वर्षावास किया । दशवां चातुर्मास (सं० १९६२) रतलाम साचरोद का चातुर्मास शान्तिपूर्वक पूरा हो गया। रतलाम से प्रतापमलजी महाराज की अस्वस्थता के समाचार मिले । आपने लक्ष्मीचन्दजी महाराज के साथ दो साधुओं को भेजा । किन्तु उनकी सेवा का सुफल प्राप्त न हो सका; प्रतापमलजी महाराज का स्वर्गवास हो गया । आपश्री भी वहाँ पधार गये थे । स्वर्गवास के पश्चात् आपने वहाँ से विहार करने का विचार किया ।
आपकी माताजी केसरकंवरजी महाराज, जो सं० १६५२ में, साध्वी बन गई थीं, वहीं रतलाम में विराजमान थीं । ६ वर्ष की कठोर साधना से उनका शरीर बल क्षीण हो गया था । उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था । गिरते स्वास्थ्य से उन्हें लगा — जैसे अन्त समय नजदीक आ पहुँचा है । एक दिन उनके उद्गार निकले
: २५ : उदय : धर्म - दिवाकर का
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"मेरा अन्त समय समीप ही दिखाई दे रहा है। अतः आप ( मुनिश्री चौथमलजी महाराज ) आसपास ही विचरण करना जिससे मुझे अन्तिम समय के त्याग प्रत्याख्यान में आपका सहयोग प्राप्त हो सके । आपके मुख से मैं मंगलपाठ सुन सकूं और संथारा ग्रहण करके शान्तिपूर्वक मेरी इहलीला समाप्त हो सके ।"
माताजी की इस भावना का पुत्र पर यथेच्छ प्रभाव हुआ । यद्यपि अब मातान्पुत्र का सम्बन्ध नहीं रहा था, लेकिन माता का उपकार कैसे भुलाया जा सकता है । माता का पद सांसारिक दृष्टि से तो बहुत ही उच्च माना गया है; इस पर आपश्री की माताजी तो दीक्षा में परम सहकारिणी हुई थीं। मार्ग में आने वाली सभी विघ्न-बाधाओं से जूझकर उन्होंने संयम का पथ प्रशस्त किया था। उन्हीं के अकथ प्रयासों और साहस से आपक्षी की दीक्षा और संयम-साधना संभव हो सकी थी। ऐसी माता का उपकार क्या भुलाया जा सकता था ? उसकी भावना की क्या उपेक्षा की जा सकती थी ? आपश्री ने महासतीजी महाराज की इच्छा सहर्ष स्वीकार कर ली। अनेक जनों को सत्पथ की ओर प्रेरित करते हुए रतलाम के निकट ही पमणोद और वहाँ से सैलाना पधारे। वहाँ आपको महासतीजी महाराज के स्वास्थ्य में सुधार के समाचार प्राप्त हुए। चिन्ता कम हुई। विचार हुआ— अब स्वास्थ्य सुधर ही जायगा। तनिक से सुधार से पूर्ण सुधार की आशा बंध हो जाती है। आप नीमच पधारे। वहाँ वादी मानमर्दक गुरुवर श्रीनन्दलालजी महाराज विराज रहे थे। वहीं रतलाम श्रावक संघ ने रतलाम में चातुर्मास की प्रार्थना की उत्तर मिला – सभी सन्तगण रामपुरा में एकत्र होंगे, वहीं वर्षावास का निर्णय होगा । आपश्री रामपुरा पधारे सभी सन्त वहां एकत्र हुए ।
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रतलाम में महासती श्री केसर कुंवरजी महाराज का स्वास्थ्य फिर बिगड़ने लगा । उनकी प्रत्येक श्वास में मुनिश्री चौथमलजी महाराज के दर्शनों की ध्वनि थी। से बहुत दूर रामपुरा में थे। वहाँ कैसे पहुँच सकते थे ? शायद प्रकृति धिक अनुराग वालों को यह अन्त समय में समीप नहीं रहने देती। इसीलिए निर्वाण के समय श्रमण भगवन्त महावीर ने गौतम स्वामी को दूर भेज दिया था। वे जानते थे कि गौतम का उनके प्रति विशेष अनुराग है, निर्वाण के समय उन्हें बहुत दुःख होगा। शायद प्रकृति भी यही चाहती थी कि महासती केसर कुंवरजी महाराज के अन्तिम समय पर मुनिश्री चौथमलजी महाराज वहाँ उपस्थित न रहें ।
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किन्तु आपनी तो रतलाम का यह नियम है कि अत्य
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