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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
आत्मा के स्व-स्वरूप पर श्रद्धा होना, स्व-स्वरूप को जोनना और स्व-स्वरूप में स्थिर होना ही क्रमशः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र है और इसकी समन्वित-साधना की पूर्णता ही मुक्ति है । इसलिए ज्ञान आत्मा का आगत गुण नहीं, निज गुण है और वह मुक्त-अवस्था में भी रहता हैं। संसार में परेशानी एवं संसार परिभ्रमण का कारण ज्ञान नहीं, ज्ञान की अशुद्ध-पर्याय अज्ञान
: ५०६ कर्म बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएँ
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है। राग-द्वेष एवं मोह के कारण यह अशुद्ध पर्याय होती है। ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की अशुद्ध या असम्यक्-पर्याय का क्षय कर देना ही मोक्ष है । चौथी बात यह है कि सभी पदार्थ एक अपेक्षा से क्षणिक भी हैं, परन्तु वे सर्वथा क्षणिक नहीं है । प्रत्येक पदार्थ की पर्याय परिवर्तित होती है, परन्तु पदार्थ का द्रव्यत्व कभी नष्ट नहीं होता, वह सदा बना रहता है। स्वर्ण का आकार बदल सकता है । स्वर्ण के कंगन को तोड़कर उसका हार बना सकते हैं। कंगन का हार बनाने में आकार बदल गया, परन्तु स्वर्ण-द्रव्य, जो कंगन में था, वह हार में भी है, वह नहीं बदला। इसलिए इतना सत्य अवश्य है कि सभी पदार्थ अनित्य भी हैं, क्षणिक भी हैं, परन्तु एकान्तरूप से अनित्य ही नहीं है। इस प्रकार सापेक्ष दृष्टि से विचार करें, तो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझ सकते हैं। सापेक्ष दृष्टि जिसे जैन दर्शन में अनेकान्त एवं स्यादवाद कहते हैं, वस्तु के स्वरूप को समझने-जानने एवं परखने की एक वैज्ञानिक दृष्टि एवं पद्धति हैं। इस विश्व का कोई भी पदार्थ न एकान्तरूप से निस्य है, न एकान्तरूप से अनित्य है, प्रत्युत वह नित्यानित्य है ।
जैन दर्शन एवं आगम साहित्य में यह माना गया है कि आत्मा शुभ और अशुभ कर्म का कर्त्ता है और उसके शुभ और अशुभ अथवा सुख-दुःख रूप अनुकूल एवं प्रतिकूल फल का भोक्ता या संवेदक भी है। भगवती सूत्र में गणधर गौतम के पूछने पर कि भगवन्! आत्मा स्वकृत कर्म का फल भोगता है, परकृत कर्म का या उभयकृत कर्म का फल भोगता है ? इसके उत्तर में भ्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे गौतम! संसार में परिभ्रमणशील प्रत्येक आत्मा स्वकृत कर्म फल का ही भोग करता है। कोई भी व्यक्ति न तो पर-कृत कर्म फल का वेदन करता है, और न उभय-कृत कर्म - फल का । इससे स्पष्ट होता है, कि कर्म है, कर्म का बन्ध होता है, आबद्ध कर्म के फल का संवेदन होता है अथवा कर्म फल मिलता है, और आबद्ध कर्म का भोग करके या निर्जरा करके आत्मा कर्म-वन्धन से एकदेश से और सम्पूर्ण रूप से मुक्त भी होता है। की निर्जरा (क्षय) नहीं करता, तब तक आत्मा उनसे मुक्त नहीं हो नहीं है कि वह कर्म- पुद्गलों के अस्तित्व को ही मिटा देता है। पुद्गल द्रव्यरूप से नित्य हैं, वे सदा से रहे हैं और सदा-सर्वदा रहेंगे। यहां क्षय करने का अर्थ इतना ही है कि उनका आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध नहीं रहता । आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाने के बाद वे कर्म नहीं, पुद्गल कहे जाते हैं
क्योंकि जब तक अपने कृत-कर्मों कर्मक्षय का यह अर्थ
सकता।
निश्चय-दृष्टि
आत्म-स्वरूप की दृष्टि से आत्मा शुद्ध है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त - वीर्य (शक्ति) विद्यमान है। अपने शुद्ध स्वरूप को भूलकर पर स्वरूप या पर-भाव में परिणत होने के कारण ही वह कर्म से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करता है। वह न तो पर
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उत्तराध्ययन सूत्र, २०, ३७
भगवती सूत्र १, ३
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