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: ४९७ : सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
जाति से अधिक अर्थ-विस्तार नहीं दे पाया, किन्तु वैष्णव परम्परा में अहिंसा का प्रत्यय प्राणी जगत तक ओर जैन परम्परा में वनस्पति जगत तक अपना अर्थ विस्तार पा गया। इस प्रकार नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक अर्थ उनके अर्थों को विस्तार या संकोच देना भी है। इसमें मूलभूत प्रत्यय की मूल्यवत्ता बनी रहती है, केवल उसके अर्थ विस्तार या संकोच ग्रहण करते जाते हैं । नरबलि पशुबलि या विधर्मी की हत्या हिंसा है या नहीं है ? इस प्रश्न के उत्तर लोगों के विचारों
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अहिंसा की मूल्यवत्ता अप्रभावित है । दण्ड के इससे न्याय की मूल्यवत्ता समाप्त नहीं होती अर्थ-विस्तार या अर्थ संकोच हुआ है । इसकी
की भिन्नता से भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु इससे सिद्धान्त और दण्ड के नियम बदल सकते हैं, किन्तु है । यौन नैतिकता के सन्दर्भ में भी इसी प्रकार का एक अति यह रही है कि एक ओर पर-पुरुष का दर्शन भी पाप माना गया तो दूसरी ओर स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों को भी विहित माना गया। किन्तु इन दोनों अतियों के बावजूद भी पति-पत्नी सम्बन्ध में प्रेम, निष्ठा एवं स्वाग के तत्वों की अनिवार्यता सर्वमान्य रही तथा संयम एवं ब्रह्मचर्य की मूल्यवत्ता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया गया ।
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नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता का एक रूप वह होता है, जिसमें किसी मूल्य की मूल्यवत्ता को अस्वीकार नहीं किया जाता, किन्तु उनका पदक्रम बदलता रहता है अर्थात् मूल्यों का निर्मूल्यीकरण नहीं होता अपितु उनका स्थान संक्रमण होता है। किसी युग में जो नैतिक गुण प्रमुख माने जाते रहे हों, वे दूसरे युग में गौण हो सकते हैं और जो मूल्य गौण थे, वे प्रमुख हो सकते हैं । उच्च मूल्य निम्न स्थान पर तथा निम्न मूल्य उच्च स्थान पर या साध्य मूल्य साधन स्थान पर तथा साधन मूल्य साध्य स्थान पर आ जा सकते हैं । कभी न्याय का मूल्य प्रमुख और अहिंसा का मूल्य गौण था— न्याय की स्थापना के लिए हिंसा को विहित माना जाता प्रत्यय प्रमुख बन गया तो अन्याय को सहन करना मी विहित माने स्थान पर ईसाइयत के मूल्यों की स्थापना में ऐसा ही परिवर्तन हुआ सामाजिक न्याय के हेतु सूनी क्रान्ति की उपादेयता की स्वीकृति के पर न्याय को ही प्रमुख मूल्य के पद पर स्थापित करना चाहता है । नहीं है कि ग्रीक सभ्यता में या साम्यवादी दर्शन में अहिंसा पूर्णतया न्याय का कोई स्थान ही नहीं है मात्र होता यह है कि युग की के कुछ मूल्य उमरकर प्रमुख बन जाते हैं और दूसरे उनके परिपार्श्व में चले जाते हैं । मात्र इतना ही नहीं, कभी-कभी बाहर से परस्पर विरोध में स्थित दो मूल्य वस्तुतः विरोधी नहीं होते हैं --- जैसे न्याय और अहिंसा । कभी-कभी न्याय की स्थापना के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता
था किन्तु जब अहिंसा का जाने लगा। ग्रीक मूल्यों के है । आज साम्यवादी दर्शन द्वारा पुनः अहिंसा के स्थान किन्तु इसका अर्थ यह कभी निर्मूल्य निर्मूल्य है या ईसाइयत में परिस्थिति के अनुरूप मूल्य- विश्व
है किन्तु इससे मूलतः वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि अन्याय भी तो हिसा ही है। साम्यवाद और प्रजातन्त्र के राजनैतिक दर्शनों का विशेष मूल्य-विरोध नहीं, मूल्यों की प्रधानता का विरोध है साम्यवाद के लिए रोटी और सामाजिक न्याय प्रधान मूल्य है और स्वतन्त्रता गौण मूल्य है, जबकि प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता प्रधान मूल्य है और रोटी गौण मूल्य है।
(अतन्त्रता) को ही प्रधान
आज स्वच्छन्द यौनाचार का समर्थन भी संयम के स्थान पर स्वतन्त्रता मूल्य मानने के एक अतिवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। सुखवाद और बुद्धिवाद का मूल्य-विवाद भी ऐसा ही है, न तो सुखवाद बुद्धितत्त्व को निर्मूल्य मानता है और न बुद्धिवाद सुख को निमूल्य मानता है। मात्र इतना ही है कि सुखवाद में सुख प्रधान मूल्य है और बुद्धि गौण मूल्य है जबकि बुद्धिवाद में विवेक प्रधान मूल्य है और सुख गौण मूल्य है। इस प्रकार मूल्य परिवर्तन का अर्थ
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