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|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४८२ :
जा सके, सम्भव नहीं माना जाता । परम्पर्या कहा जाता है कि मसी-चूर्ण की इतनी विशाल राशि हो कि अंबारी सहित हाथी भी उसमें ढंक जाये । उस मसी-चूर्ण को जल में घोला जाए और उससे पूर्व लिखे जाएँ, तो भी यह कभी शक्य नहीं होगा कि वे लेख में बाँधे जा सकें। अर्थात् पूर्वज्ञान समग्रतया शब्द का विषय नहीं है। वह लब्धिरूप आत्मक्षमतानुस्यूत है। पर, इतना सम्भाव्य मानना ही होगा कि जितना भी अंश रहा हो, शब्दरूप में उसकी अवतरणा अवश्य हुई। तब प्रश्न उपस्थित होता है, किस भाषा में ऐसा किया गया ?
साधारणतया यह मान्यता है कि पूर्व संस्कृत-बद्ध थे । कुछ लोगों का इसमें अन्यथा मत मी है । वे पूर्वो के साथ किसी भी भाषा को नहीं जोड़ना चाहते । लब्धिरूप होने से जिस किसी भाषा में उनकी अभिव्यंजना संभाव्य है। सिद्धान्ततः ऐसा भी सम्भावित हो सकता है । पर, चतुर्दश पूर्वधरों की, दश पूर्वधरों की, क्रमशः हीयमान पूर्वधरों की एक परम्परा रही है । उन पूर्वधरों द्वारा अधिगत पूर्व-ज्ञान, जितना भी वाग-विषयता में संचीर्ण हुआ, वहाँ किसी न किसी भाषा का अवलम्बन अवश्य ही रहा होगा। यदि संस्कृत में वैसा हुआ, तो स्वभावतः एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन मान्यता के अनुसार प्राकृत (अर्द्धमागधी) आदि-भाषा है। तीर्थकर अर्द्धमागधी में धर्म-देशना देते हैं। वह श्रोत-समुदाय की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है । देवता इसी भाषा मे बोलते हैं । अर्थात् वंदिक परम्परा में विश्वास रखने वालों के अनुसार छन्दस् (वैदिक संस्कृत) का जो महत्व है, जैनधर्म में आस्था रखने वालों के लिए आर्षत्व के संदर्भ में प्राकृत का वही महत्व है।
भारत में प्राकृत-बोलियाँ अत्यन्त प्राचीन काल से लोक-भाषा के रूप में व्यवहृत रही हैं। छन्दस् सम्भवतः उन्हीं बोलियों में से किसी एक पर आधृत शिष्ट रूप है । लौकिक संस्कृत का काल उससे पश्चाद्वर्ती है । इस स्थिति में पूर्व-श्रुत को भाषात्मक दृष्टि से संस्कृत के साथ जोड़ना कहाँ तक संगत है ? कहीं परवर्ती काल में ऐसा तो नहीं हुआ, जब संस्कृत का साहित्यिक भाषा के रूप में सर्वातिशायी गौरव पुनः प्रतिष्ठापन्न हुआ, तब जैन विद्वानों के मन में भी वैसा आकर्षण जगा हो कि वे भी अपने आदि वाङ्मय का उसके साथ लगाव सिद्ध करें, जिससे उसका माहात्म्य बढ़े, निश्चयात्मक रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता पर सहसा यह मान लेना समाधायक नहीं प्रतीत होता कि पूर्व-श्र त संस्कृत-निबद्ध रहा । पूर्वगत : एक परिचय
पूर्वगत के अन्तर्गत विपुल साहित्य है। उसके अन्तर्वर्ती चौदह पूर्व है
१. उत्पादपूर्व-इसमें समग्र द्रव्यों और पर्यायों के उत्पाद या उत्पत्ति को अधिकृत कर विश्लेषण किया गया है । इसका पद-परिमाण एक करोड़ है।
२. अग्रायणीयपूर्व-अन तथा अयन शब्दों के मेल से अग्रायणीय शब्द निष्पन्न हुआ है। अग्र' का अर्थ परिमाण और अयन का अर्थ गमन-परिच्छेद या विशदीकरण है। अर्थात् इस पूर्व में सब द्रव्यों, सब पर्यायों और सब जीवों के परिमाण का वर्णन है । पद-परिमाण छियानवें लाख है।
१. अग्र परिमाण तस्य अयनं गमनं परिच्छेद इत्यर्थः तस्मै हितमग्रायणीयम, सर्वद्रव्यादिपरिमाण
परिच्छेदकारि-इति भावार्थः तथाहि तत्र सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते ।
-अभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, २५१५
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