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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
की सचेतावस्था में होने वाला पदार्थज्ञान मतिज्ञान है अथवा श्रवणेन्द्रियातिरिक्त ज्ञानेन्द्रियजन्य ज्ञान को भी मतिज्ञान कहा जा सकता है।
कतिपय दार्शनिकों की इस भ्रान्त धारणा कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है, के निराकरण हेतु अधिकांश जैनदार्शनिकों ने मतिज्ञान के स्वरूप का विवेचन तज्ञान का लक्षण करते हुए किया है।
ध तज्ञान
चिन्तन के विविध बिन्दु ४७६
इस.
सामान्यतः श्रत का अर्थ 'श्रवणं श्रुतम्' से सुनना है । यह संस्कृत की 'श्र' रण से निष्पन्न है। पूज्यपाद ने भूत का अर्थ तज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनना या सुनना मात्र है वह श्रुत है।"
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किन्तु 'त' शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ सुना हुआ होने पर भी जैन दर्शन में यह 'श्रुत' शब्द ज्ञान विशेष में रूढ़ है। तथा 'मति तावधिमनः पर्ययके वलानि ज्ञानम्" इस सूत्र से भी ज्ञान शब्द की अनुवृत्ति चली आने के कारण भावरूप अवण द्वारा निर्वचन किया गया श्रृत का अर्थ श्रुतज्ञान है । केवल मात्र कानों से सुना गया शब्द ही श्रुत नहीं है ।' श्रुत का अर्थ ज्ञान विशेष करने पर जैन-दर्शन में जो शब्दमय द्वादशांग श्रुत प्रसिद्ध है उसमें विरोध उपस्थित होता है क्योंकि श्रुत शब्द से ज्ञान को ग्रहण करने पर शब्द छूट जाते हैं और शब्द को ग्रहण करने पर ज्ञान छूट जाता है तथा दोनों का एक साथ ग्रहण होना भी असम्भव है। इस पर जैनदार्शनिकों का कथन है कि उपचार से शब्दात्मक श्रुत भी श्रुतशब्द द्वारा ग्रहण करने योग्य है । इसीलिए सूत्रकार ने शब्द के भेदप्रभेदों को बताया है। यदि इनको 'अ तशब्द' ज्ञान ही इष्ट होता तो ये शब्द के होने वाले भेद-प्रभेदों को नहीं बताते । अतः जैनदार्शनिकों को मुख्यतः तो श्रुत से ज्ञान अर्थ ही इष्ट है, किन्तु उपचार से श्रुत का शब्दात्मक होना भी उनको ग्राह्य है ।
उमास्वाति के पूर्व शब्द को सुनकर जो ज्ञान होता था उसे श्रुतज्ञान कहा जाता था और उसमें शब्द के मुख्य कारण होने से उसे भी उपचार में श्रुतज्ञान कहा जाता था । परन्तु उमास्वाति को श्रुतज्ञान का इतना ही लक्षण इष्ट नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने अपने तस्वार्थसूत्र में श्रुतज्ञान का एक-दूसरा ही लक्षण किया है, जिसके अनुसार तज्ञान मतिपूर्वक होता है। उमास्वाति के पश्चात्वर्ती जैनदार्शनिकों में नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक को छोड़कर प्रायः सभी यह मानते हैं कि
१ (क) तत्त्वार्थवार्तिकम् १४९२, पृ० ४४
(स) तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रयते अनेन शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रतम् । - सर्वार्थसिद्धि १६, पृ० ६६
(ग) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार २०१४, पृ० ३
२ श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रुढिवशात् कस्मिंश्चिज्ज्ञान विशेषे वर्तते । - सर्वार्थसिद्धि १२०, पृ० ८३
३ तत्वार्थसून १२०
........ज्ञानमित्यनुवर्तनात् श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् ।
५. वही, ३।२०१३, पृ० ५९०
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- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार ३१२०/२०, पृ० ५९६
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