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श्री जैन दिवाकर.म्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४७० :
ऋजुसूत्रनय के मत से आकाश के जिन प्रदेशों में अवकाश किया हो अर्थात् संस्तारक में जितने आकाश प्रदेश उसने अवगाहन किये हों, उनमें ही बसता हुआ माना जाता है।
शब्द, समभिरूढ और एवंभूतनय-तीनों नयों का ऐसा मन्तव्य है कि जो-जो पदार्थ हैं वे सब अपने-अपने स्वरूप में ही बसते हैं। अर्थात तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से पदार्थ आत्म-भाव में रहता हुआ माना जाता है।
प्रदेश के दृष्टान्त से सप्त नयों का स्वरूप निम्न प्रकार जानना चाहिए
नैगमनय कहता है कि छह प्रकार के प्रदेश हैं-यथा-धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश ।' इस प्रकार नैगमनय के वचन को सुनकर संग्रहनय ने कहा कि तुम छह के प्रदेश कहते हो-यह उचित नहीं है क्योंकि जो देश का प्रदेश है वह उसी के द्रव्य का है उदाहरणत:मेरे नौकर ने गधा खरीदा है। दास भी मेरा ही है और गधा भी मेरा ही है। इसलिए ऐसे कहो कि छहों के प्रदेश हैं, ऐसा कहो कि पाँचों के प्रदेश हैं-यथा-धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश ।
संग्रहनय के वचन को सुनकर व्यवहारनय ने कहा कि तुमने पाँचों प्रदेश प्रतिपादन किये हैं, वे भी उचित नहीं हैं । जैसे—पाँच गोष्ठिक पुरुषों की किंचित् द्रव्य जाति सामान्य होती है, हिरण्य, सुवर्ण, धन अथवा धान्य साधारण साझी हों-उसी प्रकार पाँचों प्रदेश साधारण हों तव तो आपका कथन युक्तिसंगत है, लेकिन वे पृथक्-पृथक् प्रदेश हैं अत: आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है। लेकिन ऐसा प्रतिपादन करो कि प्रदेश पाँच प्रकार का है-यथा-धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश।
. व्यवहारनय के वचन को सुनकर ऋजुसूत्रनय ने कहा कि तुम्हारा प्रतिपादन सम्यग् नहीं है क्योंकि एक-एक द्रव्य के पाँच-पाँच प्रदेश मानने से २५ हो जाते हैं इसलिए यह कथन सिद्धान्त बाधित है । इसलिए ऐसा न कहना चाहिए किन्तु मध्य में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए । जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश । क्योंकि जिसकी वर्तमान में अस्ति है उसी की अस्ति है, जिसकी नास्ति है उसी की नास्ति है। जो पदार्थ है वह अपने गुण में सदैव काल में विद्यमान है क्योंकि पांचों द्रव्य साधारण नहीं हैं इसलिए स्यात् शब्द का प्रयोग करना चाहिए।
ऋजुस बनय के कथन को सुनकर शब्दनय ने कहा कि यदि स्यात् शब्द का ही सर्वथा प्रयोग किया जायेगा तो अनवस्था आदि दोष की प्राप्ति हो जायेगी। जैसे कि-स्यात् धर्म प्रदेश, स्यात् अधर्म प्रदेश इत्यादि । जैसे देवदत्त राजा का भी भृत्य है और वही अमात्य का भी है। इसी प्रकार आकाशादि प्रदेश भी जानना चाहिए । इसलिए ऐसा कथन युक्तिसंगत नहीं है, किन्तु ऐसा कहना चाहिए कि जो धर्म प्रदेश है वह प्रदेश ही धर्मात्मक है। इसी प्रकार जो अधर्म प्रदेश है वह प्रदेश ही अधर्मात्मक है।
शब्दनय के कथन को सुनकर समभिरूढनय ने कहा कि तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत
१ णेगमो भणति छण्हं पदेसो, तं जहा-धम्मपदेसो जाव देसपदेसो
-अणुओगद्दाराइं, सूत्र ४७६ २ अणुओगद्दाराई, सूत्र ४७६
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