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:४६७ : नयवाद : विभिन्न दर्शनों के समन्वय की
अर्थात् पृथ्वी नित्य और अनित्य-दो प्रकार की है। परमाणुरूप पृथ्वी नित्य और कार्यरूप पृथ्वी अनित्य है। वैशेषिक लोग भी एक अवयवी को ही चित्ररूप (परस्पर विरुद्ध रूप) तथा एक ही पट को चल और अचल, रूप और अरूप, आवृत्त, और अनावृत्त आदि विरुद्ध धर्म युक्त स्वीकार करते हैं । बौद्ध लोग भी एक ही चित्रपट में नील-अनील दो विरुद्ध धर्मों को मानते हैं। एक ही पुरुष को अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्रों की अपेक्षा पिता कहा जाता है उसी प्रकार एक ही अनुभूति भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से अनुभूति और अनुभाव्य कही जाती है।
संक्षेपतः द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक भेद से नय के दो भेद हैं। द्रव्याथिकनय के नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन भेद होते हैं । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत-ये चार पर्यायाथिकनय के भेद हैं । श्री सिद्धसेन आदि ताकिकों के मत को मानने वाले द्रव्याथिक नय के तीन भेद मानते है, परन्तु जिनभद्रगणि के मत का अनुसरण करने वाले सैद्धान्तिक द्रव्याथिकनय के चार भेद मानते हैं । जो पर्यायों को गौण मानकर द्रव्य को ही मुख्यतया ग्रहण करे उसे द्रव्याथिकनय कहते हैं। जो द्रव्य को गौण मानकर पर्यायों को ही मुख्यतया ग्रहण करे उसे पर्यायाथिक नय कहते हैं अर्थात् द्रव्य अर्थात् सामान्य को विषय करने वाले नय को द्रव्याथिकनय कहते हैं और पर्याय अर्थात् विशेष को विषय करने वाले नय को पर्यायाथिकनय कहते हैं।
नय और प्रमाण से होने वाले जीवादि तत्त्वों के यथार्थज्ञान को सम्यगृज्ञान कहते हैं। न्यायशास्त्र में जिस ज्ञान का विषय सत्य है उसे सम्यग्ज्ञान और जिसका विषय असत्य है उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। अध्यात्मशास्त्र में यह विभाग गौण है। यहाँ सम्यग्ज्ञान से उसी ज्ञान का ग्रहण होता है जिससे आत्मा का विकास हो और मिथ्याज्ञान से उसी ज्ञान का ग्रहण होता है जिससे आत्मा का पतन हो या संसार की वृद्धि हो । अस्तु, किसी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहते हैं। किसी एक या अनेक वस्तुओं के विषय में अलग-अलग मनुष्यों के या एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न विचार होते हैं । अगर प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाय तो वे विचार अपरिमित हैं। इन सबका विचार प्रत्येक को लेकर करना असम्भव है। अपने प्रयोजन के अनुसार अतिविस्तार और अतिसंक्षेप-दोनों को छोड़कर किसी विषय का मध्यम दष्टि से प्रतिपादन करना ही नय है।
सामान्यतः मनुष्य की ज्ञानवृत्ति अधूरी होती है और अस्मिता अभिनिवेश अर्थात् अहंकार या अपने को ठीक मानने की भावना बहुत अधिक होती है। इससे जब वह किसी विषय में किसी प्रकार का विचार करता है तो उसी विचार को अन्तिम, सम्पूर्ण तथा सत्य मान लेता है। इस भावना से वह दूसरों के विचारों को समझने के धैर्य को खो बैठता है। अन्त में अपने अल्प तथा आंशिक ज्ञान को सम्पूर्ण मान लेता है। इस प्रकार की धारणाओं के कारण ही सत्य होने पर भी मान्यताओं में परस्पर विवाद हो जाता है और पूर्ण और सत्य ज्ञान का द्वार बंद हो जाता है।
एक दर्शन आत्मा आदि के विषय में अपने माने हए किसी पुरुष के एकदेशीय विचार को सम्पूर्ण सत्य मान लेता है। उस विषय में उसका विरोध करने वाले सत्य विचार को भी असत्य समझता है । इसी प्रकार दूसरा दर्शन पहले को और दोनों मिलकर तीसरे को झुठा समझते हैं। फलस्वरूप समता की जगह विषमता और विवाद खड़े हो जाते हैं अतः सत्य और पूर्ण ज्ञान का द्वार खोलने के लिए तथा विवाद दूर करने के लिए नयवाद की स्थापना की गई है और उसके द्वारा यह बताया गया है कि प्रत्येक विचारक अपने विचार को आप्त-वाक्य कहने के पहले यह तो सोचे
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