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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : १८ :
निवासी श्री खूबचन्दजी वैरागी नीमच आये । इनके अतिथि बने और उदयपुर आने की प्रेरणा देकर चले गये ।
अभ्यास के पथ पर
उदयपुर में उस समय वादी मानमर्दक पं० श्री नन्दलालजी महाराज का चातुर्मास था, दोनों माता-पुत्र वहीं पहुँचे । वहाँ इन्होंने प्रतिक्रमण और दशवैकालिक सूत्र के तीन अध्ययन कंठस्थ कर लिए ।
इसके बाद इन्होंने माता सहित गुरुदर्शनार्थ भ्रमण प्रारम्भ किया । ब्यावर में अपनी सगी मौसी साध्वी श्री रत्नाजी महाराज के दर्शन किये। वहाँ से बीकानेर गये । वहाँ ३२ शास्त्रों की ज्ञाता गट्टुबाई के घर ठहरे । महासती नन्दकुंवरजी महाराज की साध्वियां भी वहीं विराजमान थीं । बीकानेर से भीनासर होते हुए देशनोक पहुँचे । वहाँ पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज के सम्प्रदायानुगामी श्री रघुनाथजी महाराज और श्री हजारीमलजी महाराज विराजमान थे । उनके दर्शन किये, प्रवचन सुने । उन्होंने भी चौथमलजी के मुख से दशवैकालिक की गाथाओं का शुद्ध उच्चारण सुनकर हर्ष व्यक्त किया ।
वहाँ से जयपुर गये । काशीनाथजी के घर ठहरे। फिर निम्बाहेड़ा (टोंक) पहुँचे । यहाँ कविवर श्री हीरालालजी महाराज से शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। कुछ शास्त्र, पात्र, रजोहरण आदि धर्म - उपकरण लेकर जावद ( मालवा ) पहुँचे । वहाँ उस समय पूज्यश्री चौथमलजी महाराज और पूज्य श्रीलालजी महाराज विराजमान थे । उन्होंने अलग-अलग इन्हें दीक्षा लेने की प्रेरणा दी ।
इस भ्रमण का उद्देश्य साधुचर्या का सूक्ष्म अध्ययन और श्रमण - जीवन की कठिनाइयों को समझना था । पूर्व अध्ययन से जीवन यात्रा में प्रमाद और मूल का अवकाश नहीं रहता ।
इस निकट अनुभव के बाद इन्होंने अब दीक्षा में विलम्ब करना उचित न समझा । दीक्षा की भावना लेकर माता-पुत्र निम्बाहेड़ा आये और कविवर्य पं० श्री हीरालालजी महाराज के साथ केरी गाँव पहुँचे । जब महाराजश्री ने इस पदयात्रा का कारण पूछा तो उन्होंने प्रव्रजित होने की इच्छा प्रकट की । इनकी दृढ़ता से महाराजश्री सन्तुष्ट हो गये ।
पूनमचन्द जी फिर विघ्न बने
दीक्षार्थी के परिवार के लोगों की आज्ञा के बिना जैन साधु किसी को दीक्षा नहीं देते । यही इन माता-पुत्रों की दीक्षा में विलंब का कारण था । केरी से श्री फूलचन्दजी और भोगीदासजी चौथमलजी के श्वसुर पूनमचन्दजी से आज्ञा लेने के लिए गये । दीक्षा की बात सुनते ही पूनमचन्द जी आगबबूला हो गये । उन्होंने धमकी दी—
" मेरे पास दुनाली बन्दूक है । एक गोली से शिष्य को यमधाम पहुँचा दूंगा और दूसरी से दीक्षा देने वाले गुरु को ।"
यह धमकी सुनकर दोनों सन्नाटे में आ गये । आगे कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं था । लोटकर चले आये । सन्तगण भी चमक उठे । आशुकवि श्री हीरालालजी महाराज ने दीर्घदृष्टि से सोचविचार कर चौथमल जी को धर्मोपकरण लेकर मन्दसौर आने की प्रेरणा दी ।
चौथमलजी मंदसौर पहुँचे । वहाँ भी बिना आज्ञा दीक्षा देना सम्भव न हुआ । चौथमलजी का हृदय व्यथित हो गया । उनकी अकुलाहट बढ़ रही थी। माता के समक्ष अपनी भावना व्यक्त की तो उसने अपनी व्यावहारिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए सुझाया
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