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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
(१८) संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, गुजराती, राजस्थानी, मालवी आदि विविध भाषाओं का अधिकाधिक व्यवस्थित प्रयोग ।
(१६) समभाव की जागृति ।
(२०) लोक-जीवन से सम्बद्ध प्रतीकों, रूपकों, उपमानों, बिम्बों आदि का प्रयोग ।
(२१) यथावसर छन्द, शेर, श्लोक, लोक गीत, भजन, आगम गाथाओं आदि का उपयोग | (२२) अनोखी सूझ-बूझ सम्पन्नता ।
(२३) दृढ़ विश्वास की पाषाण-रेखा ।
(२४) निष्काम समर्पित व्यक्तित्व की सलोनी झलक । (२५) मृदुता एवं नम्रता सर्वत्र देदीप्यमान ।
(२६) संघर्षों से जूझने की प्रवृत्ति का निराला रूप ।
(२७) जीवन के अनुभवों की ऊष्मा का संस्पर्श । (२८) मार्मिक संवेदना |
(२९) शोषण के प्रति सबल विद्रोह ।
(३०) युग को उपयोगी चुनौतियाँ
(३१) नर को नारायण बनाने के सतत उपक्रम ।
(३२) सहज साधना का प्रत्यक्ष-परोक्ष निरूपण ।
(३३) मन-वचन-कर्म में एकरूपता अर्थात् कथनी-करनी में एकरूपता ।
(३४) मंगलाचरण में विश्व कल्याण की कामना ।
(३५) भाग्यवाद की अपेक्षा पुरुषार्थं का पूर्ण समर्थन |
प्रवचन कला : एक झलक : ४१२ :
(३६) जल-कमलवत् जीवन-साधना का अनुरंजन ।
(३७) धर्माचरण में निष्ठा की स्थापना ।
(३८) आलोकित प्रकाश स्तम्भ की किरणों का अंगराग ।
( ३६ ) सन्त परम्परा की अजस्र स्रोत की निर्भीकता ।
(४०) निर्भीक तथ्य निरूपण ।
( ४१ ) स्वकथ्य के समर्थन में विभिन्न मतों के प्रमाणों का उल्लेख ।
(४२) समाजवादी दृष्टिकोण की सार्थकता ।
(४३) कर्त्तव्य के प्रति कठोरता, प्रीति के प्रति उदारता एवं युग-बोध के प्रति सजगता ।
(४४) वर्तमान के आलोक में भविष्य का निर्माण ।
(४५) उपयोगी प्राचीनता के प्रति आकर्षण ।
(४६) भ्रष्टाचार के उन्मूलन में निरन्तर प्रयत्नशीलता ।
(४७) राष्ट्रीयता के प्रति लगाव |
(४८) सहज सिद्धान्तों की गहन पहिचान ।
(४६) भारतीय संस्कृति के लिए सहज अनुराग ।
(५०) समन्वयवाद की स्थापना में अद्भुत साहस का द्योतन । (५१) वैचारिक निर्मलता एवं स्वानुभूति का अमृतत्व । (५२) चुभन का अभाव तथा जोड़ने की अपूर्व क्षमता । (५३) बहु आयामी व्यक्तित्व की गहराई | (५४) अध्ययन-अध्यापन की स्पष्ट छाप ।
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