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________________ :४०६ : श्री चौथमलजी की प्रवचन-कला || श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ । जाति-मद की भांति धन का मद भी बड़ा घातक है। यह मद व्यक्ति को अन्धा और कर बना देता है, जिससे गरीबों का हक छीनने व कन्या को बेचने में भी संकोच नहीं होता। ऐसे व्यक्तियों की खबर लेते हुए मुनिश्री कहते हैं-'अरे ओ बेटी के धन को हड़प जाने वालो ! अरे ओ धर्म के पैसों को डकार जाने वालो ! क्या तुम चोर नहीं हो ? उस बेचारे गरीब को चोर बनाते तुम्हें लाज नहीं आती ? उसकी गरीबी ही क्या इतना बड़ा दोष है कि तुम उसे चोर कह देते हो? जरा विचार तो करो कि तुम्हारी तिजोरियाँ किस प्रकार भरी हैं ? क्या तुम्हारी तिजोरियां धन से भरने के साथ ही साथ तुम्हारी आत्मा पाप के कीचड़ से नहीं भरी है ? विचार के आइने में अपना मुंह तो देखो। --दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग ११, पृ० १२६ जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए आन्तरिक शूद्धि पर बल दिया जाना अनिवार्य है। जब तक भीतर के राग-द्वेष कम नहीं होते, जीवन में पवित्रता का भाव झलकता नहीं। इसके लिए आन्तरिक मनोविकारों पर विजय पाना आवश्यक है। मुनिश्री के शब्दों में वाह्य युद्ध के लिए जैसे शस्त्रों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आन्तरिक युद्ध के लिए भी। मगर वे शस्त्र धातुनिर्मित नहीं होते । उनका निर्माण अन्तःकरण के कारखाने में होता है और वे भावनाओं से बने होते हैं । वे हथियार क्या हैं ? संयम को बांध कटारी तू, तप की तलवार ले धारी तू । मार मार रे मोह दुश्मन को, कर एकाग्र चित्त ॥ -दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग १६, पृ० २०९-२१० (५) अपने प्रवचन को सर्व सुलभ, बोधगम्य और रोचक बनाने के लिए मुनिश्री कहीं आध्यात्मिक अनुभूतियों की तुलना लौकिक स्थितियों से करते हैं, तो कहीं उपमा और रूपकों का प्रयोग करते हैं। जैन-दर्शन में आत्मा के उत्थान की १४ श्रेणियाँ मानी गई हैं । इनकी तुलना व्यावहारिक शिक्षण के साथ करते हुए मुनिश्री समझाते हैं-जैसे वर्तमानकालीन शिक्षा पद्धति के अनुसार पांचवीं कक्षा तक प्राथमिक शिक्षा, इसके बाद पांच वर्ष तक की अर्थात दसवीं कक्षा तक की शिक्षा माध्यमिक शिक्षा मानी जाती है। इसके बाद चार वर्ष तक की शिक्षा प्राप्त कर दो श्रेणियाँ उत्तीर्ण कर लेने पर विद्यार्थी को स्नातक की पदवी प्राप्त होती है। इसी प्रकार तीर्थकर भगवान ने आध्यात्मिक शक्तियों के विकास की भूमिका पर शास्त्रों में चौदह श्रेणियाँ-गुणस्थान बतलाये हैं । प्रारम्भ के पांच गुणस्थान-देशविरति नामक पाँचवें गुणस्थान-पर्यन्त प्राथमिक या प्राइमरी विकास होता है। छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मध्यम श्रेणी का आत्मिक विकास होता है। यहाँ तक पहुँच जाने पर भी आत्मा स्नातक नहीं बन पाता। जब वह इण्टर और बी०ए० की तरह दो श्रेणियों को और उत्तीर्ण करता है। अर्थात् बारहवें गुणस्थान में आता है तो स्नातक बन जाता है । चौदहवें गुणस्थान में आत्मिक विकास की परिपूर्णता हो जाती है। -दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग ८, पृ० ६४-६५ रूपक और दृष्टान्तों का प्रयोग करने में भी मुनिश्री बड़े दक्ष और समयज्ञ हैं। उनके प्रवचनों में ऐसे प्रसंग यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जो बहुमूल्य मणियों की तरह भ्रान्त पथिकों का पथसंधान करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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