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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
चौथमलजी को विवाह बंधन में बाँधने का निर्णय किया । यह जिम्मेदारी डालने में माता केसरबाई भी सहमत थीं।
१३ उद्भव एक कल्पांकुर का
संयोग से उसी समय प्रतापगढ़ (राजस्थान ) निवासी श्री पूनमचन्द जी की ओर से उनकी पुत्री मानकुँवर के साथ चौथमल जी की सगाई का आग्रहपूर्ण अनुरोध आया । माता जी और परिवारीजनों को तो मुँहमाँगी मुराद ही मिल गई। उन्होंने तत्काल सम्बन्ध स्वीकार कर लिया । चौथमलजी से पूछने और उनकी सहमति लेने का तो प्रश्न ही नहीं था। उस समय लड़के-लड़की की सहमति तो ली ही नहीं जाती थी। उनका बोलना भी निर्लज्जता समझी जाती थी । विवाहसम्बन्ध में माता-पिता एवं वृद्धजनों का ही एकाधिकार था।
विवाह की तैयारियाँ होने लगीं ।
यद्यपि चौथमलजी विवाह करना नहीं चाहते थे, लेकिन वे इस सम्बन्ध का विरोध न कर सके विरोध न कर सकने का कारण उस समय की सामाजिक परिस्थितियाँ भी थीं। लेकिन प्रमुख कारण था उनकी माता-पिता के प्रति विशेष आदर भावना वे इन्कार करके अपनी माता के हृदय को पीड़ित नहीं करना चाहते थे। उन्होंने कई बार माता के समक्ष अपने हृदय की बात कहने का विचार किया किन्तु उनका साहस जवाब दे जाता । वे कुछ भी न कह पाते ।
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बे इसी ऊहापोह में रहे और माताजी तथा परिवारीजनों ने संवत् १९५० में उन्हें विवाह सूत्र में बाँध दिया। प्रतापगढ़ निवासी पूनमचन्दजी की सुपुत्री मानकुंवर उनकी धर्मपत्नी बन गई ।
माता केसरबाई ने सोचा-पुत्र को पटवारी का काम ही सिखा दिया जाय परिवार वालों ने भी सहमति व्यक्त की । चौथमलजी को निकटवर्ती गाँव में पटवारी का काम सीखने भेज दिया गया।
पटवारी ने काम सिखाना स्वीकार कर लिया। को भोजन बनाने का आदेश दिया। इन्होंने कभी भोजन पक्की रोटियाँ सेक कर रख दीं। पटवारी ने देखा तो क्रोधित होकर इन्हें झिड़क दिया । चौथ जी के जीवन में झिड़की खाने का यह प्रथम अवसर था । वे झिड़की न सह सके । विनयी स्वभाव होने के कारण प्रत्युत्तर तो न दिया किन्तु वहाँ से चले आए।
अब वे अपने भविष्य के बारे में गम्भीरता से विचारने लगे । उनकी गम्भीरता में वराग्य का रंग घुलता गया ।
लेकिन पहले ही दिन उसने चौथमलजी
बनाया तो था ही नहीं, अतः कच्ची
उदासीनता
विवाह के बाद भी परिवारीजनों की इच्छा पूरी न हुई । चौथमलजी का गाम्भीर्य न टूटा, वरन् और बढ़ गया । वैवाहिक कार्यक्रमों में भी वे तटस्थ रहे और सुहागरात भी वैराग्यरात के रूप में मनाई । पत्नी मानकुँबर उनकी गम्भीरता को अनदेखी करती रही । उसे विश्वास था कि हाथ पकड़ा है तो जीवन भर निभायेंगे ही। वह युग भी ऐसा ही था जिसमें विवाह जन्मजन्मांतर का सम्बन्ध माना जाता था। एक बार जिसका हाथ पकड़ लिया उसे मृत्यु हो छुड़ा सकती थी । लेकिन चौथमलजी तो वैवाहिक जीवन से निस्पृह थे। संसार में रहते हुए भी वे जल में कमलवत् निर्दोष थे । ।
उनकी उदासीनता को देखकर परिवारी और वृद्धजन उन्हें समझाते – 'अब तुम्हारा विवाह
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