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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
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थे, प्राणिमात्र की मंगलकामना उनका श्वासोच्छ्वास थी । बैठते उठते, सोते-जागते उनके हृदय में एक ही बात रहती थी कि कोई दुःखी न हो, कोई कष्ट में न हो, सब निरापद हो, सब प्रसन्न हो, सबका कल्याण हो । वे असहायों के आश्रय थे, यह शब्द उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज के पाठक को सहज ही श्री चौथमलजी महाराज की अर्न्तदृष्टि की गहराई में ले जाते हैं । यही कारण था कि उन्होंने अपनी साधना के प्रभाव के कारण कई मनुष्यों के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दुःखों को दूर किया । इसका ज्ञान सहज ही श्री केवल मुनि जी की पुस्तक 'एक क्रान्तदर्शी युग पुरुष सन्त-जैन दिवाकर' से पाठक को हो जाता है ।
: ४०३ : मानव धर्म के व्याख्याता
अहिंसा उनका मिशन था जो मानव-धर्म का एक अंग । जीवों की रक्षा का पाठ वे अन्तिम समय तक मनुष्य को सिखाते रहे और मानव धर्म की नये रूप में व्याख्या प्रस्तुत करते रहे ।
मानव-धर्म की व्याख्या करने वाले श्री जैन दिवाकरजी महाराज के प्रति श्रद्धा सुमन चढ़ाना तभी श्र ेयष्कर होगा। यदि हम मानवधर्म के अंगों को आत्म-सात कर विश्व के कल्याण के लिए कार्य करें और भौतिक युग को पुनः आध्यात्मिक युग में बदलने के लिए तत्पर हो जावें ।
परिचय एवं पता
डॉ० ए० बी० शिवाजी
प्राध्यापक - दर्शन विभाग, माधव महाविद्यालय, उज्जैन मोहन निवास - विश्व विद्यालय मार्ग, उज्जैन ।
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शील की महिमा
फूल की ।
परताप से ||२||
(तर्ज- या हशीना बस मदीना, करबला में तू न जा ) तारीफ फैले मुल्क में, एक शील के परताप से । सुरेन्द्र में कर जोड़ के, एक शील के परताप से |र || शुद्ध गंगाजल जैसा, चिन्तामणि सा रत्न है । लो स्वर्ग मुक्ति भी मिले, एक शील के परताप से ||१|| आग का पानी बने, हो सर्प माला जहर का अमृत बने, एक शील के विपिन में बस्ती बने, हो सिंह मृग समान जी । दुश्मन भी किंकर बने, एक शील के परताप से ॥३॥ चन्दनबाला कलावती, द्रोपदी सीता सती । सुखी हुई मेनासती, एक शील के परताप से ॥४॥ ! गुरु के प्रसाद से, करे चौथमल ऐसा कथन । सुरसंपति उसको मिले, एक शील के परताप से ||५|| - जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज
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