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:३६७: काव्य में सामाजिक चेतना के स्वर
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
क्रोध में मनुष्य अपने होश-हवाश खो बैठता है। मुनिश्री क्रोध को दुश्मन से भी अधिक भयंकर बताते हैं क्योंकि इससे मोहब्बत के रिश्ते क्षणभर में ही टूट जाते हैं। क्रोधी व्यक्ति की मनःस्थिति असामान्य होती है। उसका प्रभाव शरीर को भी विकृत बना देता है। क्रोधी व्यक्ति के सन्दर्भ में आपने कहा
सलवट पड़े मुह पर तुरत, कम्पे मानिन्द जिन्द के।
चश्म भी कैसे बने, इस क्रोध के परताप से ॥' व्यक्ति को कभी मान नहीं करना चाहिए। मान मनुष्य की सारी प्रतिष्ठा को पल भर में समाप्त कर देता है । चमल के खिले पुष्पों से मानी व्यक्ति की सटीक तुलना करते हुए मुनि श्री कहते हैं
जैसे खिले हैं फूल गुलशन में अजिजो देख लो।
आखिर तो वह कुम्हलायगा, त मान करना छोड़दे ॥२ जुआ या द्य त निषेध पर भी आपने अपने प्रवचनों में बल दिया है। जूआ को आपने सभी व्यसनों का सरदार बताते हए कहा कि इस व्यसन से धनवान निर्धन हो जाते हैं, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. सम्पत्ति गिरवी रखनी पडती है तथा ऐसा व्यक्ति न दुनिया का रहता है, न दीन का, न गुरू का रहता है, न पीर का । वे कहते हैं---
द्रौपदी के चौर छोने पाण्डवों के देखते ।
राज्य भी गया हाथ से, तू जुआबाजी छोड़ दे ॥ शराब के दुष्परिणामों से हम अवगत ही हैं। आज जनता सरकार भी नशाबन्दी की ओर तीव्र गति से अग्रसर है, किन्तु शराब के दुष्परिणामों को मुनिश्री ने कई वर्ष पूर्व ही भांप लिया तथा इस व्यसन से सभी को दूर रहने की सलाह दी। शराबी व्यक्ति की मनःस्थिति का विश्लेषण करते हुए मुनिश्री ने कहा
बकते-बकते हंस पड़े, और चौंक के फिर रो उठे।
बेहोश हो हथियार ले, शराब के परताप से ॥ रात्रि में भोजन करना अनेक बीमारियों को आमन्त्रण देना है। मुनिश्री ने कहा कि रात्रि में भोजन करना बड़ा भारी पाप है। रात्रि में भोजन करने वाले को क्या पता चलेगा कि भोजन में, दाल में कीड़े हैं या जीरा ? वह तो चींटियों को भी जीरा समझकर खा जायगा। रात्रि-भोजन को स्वास्थ्य व धर्म दोनों को नष्ट करने वाला बताते हुए आपने कहा
चिड़ी कमेड़ी कागला, नहीं रात चुगण जाय ।
नर देहधारी मानवी, तू रात में क्यों खाय ?" बीड़ी, सिगरेट और तमाखू के व्यापक प्रचलन से मुनिश्री परिचित थे। यह कुव्यसन आज की युवा पीढ़ी में भी व्याप्त हो गया है । मुनिश्री ने फरमाया कि तमाखू के धुंए से मकान ही काला
१ जैन गजल गुल चमन बहार, पृ०६। ३ वही, पृ. १०। ५ दिवाकर दिव्य ज्योति भाग २, पृ० २५६ ।
२ वही, पृ०७। ४ वही, पृ० १२-१३ ।
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