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: ११ : उद्भव : एक कल्पांकुर का
कर चलने लगा और फिर का हृदय हर्ष से भर जाता;
में सुसंस्कार भरती रही।
श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
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दौड़ लगाने लगा। उसकी बाल क्रीड़ाओं को देखकर माता केसरबाई लेकिन हर्ष में भी वे अपने कर्तव्य को न भूलीं पुत्र के मन-मस्तिष्क
बालक चौथमल सात वर्ष का हो गया । पिता ने उसे विद्यार्जन के लिए गुरु के पास बिठा दिया। क्योंकि विद्या ही कृरूपों का रूप और रूपवानों का सौन्दर्य है। कहा है- 'विद्यारूपं कुरूपाणां ।'
कुशाग्र बुद्धि बालक चौथमल ने अक्षरज्ञान के साथ-साथ हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, गणित आदि का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्हें नई-नई पुस्तकों को पढ़ने का चाव रहता था। वे नगर के पुस्तक विक्रेता नंदरामजी पंसारी की दुकान पर अवकाश मिलते ही जा बैठते और पुस्तकें पढ़ते रहते। कभी मन ही मन और कभी सस्वर । उन्हें संगीत का शौक भी लगा । आयु बढ़ने के साथ-साथ स्वर भी मधुर होता गया । संगीतशास्त्र के विधिवत् अध्ययन के बिना ही उन्हें श्रोताओं को मुग्ध करने की कला आ गई। लोग उनके उत्तम गुणों से प्रभावित होकर कहते - यह बालक किसी दिन महापुरुष बनेगा ।'
बालक चौथमल का एक प्रमुख गुण था - गम्भीरता । यह गम्भीरता उनकी विचार होनता के कारण न थी वरन् इसका कारण थे उनके धार्मिक और शुभ संस्कार उनमें विनय गुण का भी समावेश था । यह गुण उनके यहाँ यदा-कदा आने वाले साधु-साध्वियों के प्रभाव का परिणाम था। घर का वातावरण शांत और धार्मिक होने के कारण बालक चौथमल में स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता का किंचितमात्र भी समावेश न हो पाया।
अपने इस गम्भीर स्वभाव और धार्मिक संस्कारों से आप्लावित बालक चौथमल १२ वर्ष का हो गया। उसने बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश किया। वैराग्य स्फुरणा
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प्रथम आघात : अग्रज का अन्त
अभी चौथमलजी १३ वर्ष के ही थे कि उन्हें पहला तीव्र आघात लगा । उनके अग्रज कालूराम जी का असमय ही करण अन्त हो गया ।
कालूरामजी चौथमलजी के बड़े भाई थे। घर में धार्मिक वातावरण होने पर भी बाहर की कुसंगति के कारण उन्हें जुआ ( चत) खेलने का व्यसन लग गया। घर में तो जुआ खेल ही नहीं सकते थे। इधर-उधर लुक-छिपकर जुना खेलते रहते थे। एक दिन उनके कुमित्रों ने नगरसीमा के बाहर अपना व्यसन पूरा करने की योजना बनाई। सभी मित्र वहाँ पहुँच गए। संध्या के झुरमुटे तक खेल चलता रहा । संयोग से कालूराम जीतते रहे । रात्रि का अन्धकार फैलते ही कालूराम उठकर चलने लगे तो मित्रों ने आग्रह करके बिठा लिया। धन प्राणों का ग्राहक होता है। अवसर देखकर मित्रों ने कालूराम को धर दबोचा। उनका गला दबा दिया। कालूराम ने बहुत हाथ-पैर मारे लेकिन कई कुमित्रों के आगे उनका वश न चला और उनके प्राण तन पिंजर को त्याग कर निकल भागे ।
यह था द्यूतक्रीड़ा का भयंकर दुष्परिणाम !
कालूराम के शव को वहीं पड़ा छोड़कर मित्रों ने धन का परस्पर बँटवारा किया और अपने-अपने घर जा सोए ।
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