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: ३६१ : अंत्योदय तथा पतितोद्धार के सफल सूत्रधार श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
को मिटाने में अथक प्रयत्न किया। तथा उसके आधार भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ त्याग, वैराग्य समता और अहिंसा को बनाये रखने की अपील की।
कार्यक्षेत्र
राजनैतिक धरातल पर आज जिस 'अन्त्योदय' की बात कही जा रही है, वह अन्त्योदय की प्रक्रिया उन्होंने मानस-परिवर्तन के साथ अपने युग में ही प्रारम्भ कर दी थी। भील, आदिवासी, हरिजन, चमार, मोची, कलाल, खटीक, वेश्यायें आदि उनके उपदेशों से स्वयं ही धर्म की शरण में आये और सात्विक जीवन जीने लगे । वर्तमान में जो बातें शासन द्वारा पतितों के लिए कही जाती हैं वह उन तक नहीं पहुँच पातीं। इसका एकमात्र कारण सरकारी मशीनरी में आई शिथिलता है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य के कन्धों पर पांव रखकर आगे बढ़ना चाहता है।
और इसी प्रक्रिया में पतितों के उद्धार की बातें उन तक नहीं पहुंच पातीं, किन्तु मुनिश्री चौथमलजी महाराज का प्रत्यक्ष सम्पर्क रहता था, अतः जो भी कोई व्यक्ति उनके सम्पर्क में आया उसकी सोती हुई चेतना धार्मिक कृत्यों में लग गयी। यदि आज वे हमारे मध्य होते तो हमारे समाज का नक्शा ही कुछ और होता; पीडित, दलित मानवता आज मुस्कराती नजर आती।
धर्म श्रवण की सबसे अधिक आवश्यकता पतितों को होती है, क्योंकि वे इसी आस्था के सहारे अपने जीवन को अच्छी प्रकार जी सकते हैं। यह बात मुनिश्री चौथमलजी महाराज भलीभाँति जानते थे, अतः उन्होंने पतितों के मानस में धर्म को उतारने के लिए आज से ६५ वर्ष पूर्व ही यह शुभ कार्य आरम्भ कर दिया था। गाँधीजी ने हरिजनों के उद्धार का बीड़ा उठाया था जिसे आज राजनीति के रंग में रंगकर 'अन्त्योदय' रूप दिया जा रहा है।
कुछ उदाहरण वि०सं० १९६६ उदयपुर से जैन दिवाकरजी महाराज पं० नन्दलालजी महाराज के साथ विहार करके 'नाई' पधारे। वहाँ तीन-चार हजार भील एकत्र हो गये। मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अपना ओजस्वी भाषण दिया। आपकी वाक्शक्ति का अचूक प्रभाव पड़ा। भीलों के हृदय में हिंसा के प्रति अरुचि उत्पन्न हुई। उन्होंने कहा-महाराजश्री, हम लोग हिसा त्याग की प्रतिज्ञा लेने को तत्पर हैं किन्तु हमारी विनय है कि यहाँ के महाजन भी न्यूनाधिक तोलने की प्रवृत्ति त्यागें।
महाराजश्री ने महाजनों को समझाया-बुझाया । भील तथा महाजनों ने संयुक्त रूप से शपथ ली--किसी भी नर-नारी को कष्ट नहीं पहुँचायेंगे, वन में अग्नि नहीं जलायेंगे। पशुओं की हिंसा नहीं करेंगे।
वि०सं० १९७० में जब पुन: भीलवाड़ा पधारे तो ३५ खटीकों ने अपना पैतृक-धन्धा त्याग कर अहिंसा की शरण ली । सवाई माधोपुर में भी ३० खटीकों ने अपना धन्धा छोड़ा और वे मेहनतमजदूरी, कृषिकार्य आदि के द्वारा जीवनयापन करने लगे। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने कहा"जब हम लोग हिंसा करते थे तो हमारा पेट भी मुश्किल से भरता था, सदैव अभावों से घिरे रहते थे। किन्तु जब से हिंसा छोड़ी है तब से हम सुखी हैं । गुरुदेव की कृपा से हमारा जीवन भी सुधर गया है । अब हमारे जीवन में सुख-शांति है।"
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