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। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
: ३५६ : समाज-सुधार में सन्त-परम्परा
आप निर्भीक, सरल एवं मधुर स्वभाव के धनी थे। शिक्षा प्रेमी, मानव प्रेमी, धर्म प्रेमी एक समाज एवं राष्ट्र प्रेमी युगपुरुष के रूप में आपने ख्याति अजित की थी। सच्चे अर्थों में वे एक लोक-नायक थे-क्योंकि उन्हें लोक-व्यवहार का पूर्ण ज्ञान था। उनके व्यक्तित्व की छाप जनता के मन और मस्तिष्क पर चिरस्थायी रूप से पड़ती थी। वे महान सृजन धर्मी थे। उन्होंने हर क्षेत्र में नव सृजन का मार्ग उजागर किया-क्या साहित्य, क्या धर्म, क्या संस्कृति, क्या शिक्षा, क्या समाजसभी ओर उनका ध्यान था । वे सभी के थे, सभी आपके थे। आपको एक क्षणमात्र का भी प्रमाद नहीं था। प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना, उनके जीवन का परम उद्देश्य था--"समयं गोयम मा पमायए" । आप समता, उदारता और निस्पृहता की साकार मूर्ति थे।
अन्त में, सन्त दिवाकरजी के आदर्शों के अनुरूप चलकर शुद्ध आचरण के साथ मानव-जाति के कल्याणार्थ रचनात्मक कदम उठाने की ओर अगर हम ध्यान देंगे तो मेरी समझ में इस सन्त को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। परिचय एवं पता चतुर्मज स्वर्णकार शिक्षक एम० ए०, बी०एड० साहित्य-रत्न (हिन्दी एवं अर्थशास्त्र) राजकीय माध्यमिक विद्यालय पारसोला, जिला उदयपुर (राजस्थान) - --0--0--0--0--0---
दयालु गुरुवर
(तर्ज-चौदहवीं का चाँद हो) गुरुवर दयाल के दिल महा विशाल के आओ हो आज गायें गुण उस बे मिशाल के ।टेर। नीमच नगर से आप निकल, बन गये महामुनि था नाम चौथमलजी, दिनकर महागुणी पीते थे जाम प्रेम का, दुर्गुण को टाल के ।१। वाणी सुधा-सी रसवती, त्रय ताप-नाशनी जनता तुम्हारी गा रही, गाथा सुवासनी देखा था झुकते विश्व को केशर के लाल के ।२। चेहरे पर दिव्य तेज था तप और त्याग का दिल में दया भरी हुई, बल था वैराग्य का करते दया जग जीव की दुश्मन थे काल के ।३। था जन्म दीक्षा स्वर्ग दिन एक सूर्यवार का तीनों ही पक्ष शुक्ल था उस महा दीदार का "मुनिमूल” मुख मुस्कान थी, दर्शन कमाल के ।४।
-मधुरवक्ता श्री मूलमुनि।
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