________________
: ३५५ : समाज-सुधार में सन्त-परम्परा
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
किसी आदमी को छोटा-बड़ा नहीं माना उसी प्रकार जैन सन्त दिवाकरजी महाराज ने सभी धर्मावलम्बियों को आदमी के रूप में पहले देखा । उनकी आत्मा में सभी वर्गों के मनुष्यों के प्रति समता भाव थे। जैन धर्मानुसार मनुष्य धर्माराधन में सबसे बढ़कर जैनशास्त्रों में "देवानुप्रिय" शब्द का प्रयोग होता है जिसका अर्थ है-मनुष्य देवताओं को भी प्रिय लगता है । मनुष्य में अनन्त शक्तियों की सत्ता है, परन्तु सांसारिक मोह-माया के कारण कर्म-मल से आच्छादित बादल से ढका सूर्य है और इसी से उसे मुक्त करना है।
सन्त दिवाकरजी महाराज ने भी 'कर्म' के आधार पर ही आदमी को देखा और उसे त्यागतपस्या और साधना मार्ग में प्रेरित करने का यावज्जीवन प्रयत्न किया। जैन सिद्धान्तों के अनुसार मुनिश्री ने आदमी को 'मनसा, वाचा, कर्मणा' से शुद्ध करने का प्रयत्न किया । जो व्यक्ति वस्तु के शुद्ध स्वरूप को जानता है जिसका मन, वचन और कर्म शुद्ध है, पवित्र है उसे मुनिश्री ने चाहे वह भील हो, चमार हो, खटीक हो, मोची हो, मुसलमान या यहूदी हो-उसे जैन माना था । यही उनकी श्रमण संस्कृति को ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को अपूर्व देन थी। इसीलिए सन्त दिवाकरजी महाराज ने पतितों को उठाया, उठे हुए को सन्मार्ग पर चलाया, उन्हें गले लगाया । इस प्रकार उन्होंने एक नये आदमी को जन्म देने का मार्ग ढूंढ़ा । उन्होंने बर्बर जीवनयापन करने वालों को सन्मार्ग बताया, उन्हें जीने का मन्त्र दिया, मानवता का पाठ पढ़ाया, पाठ याद कराया। जो व्यक्ति मानव को दानवता के मार्ग से मुक्ति दिलाकर मानवता के मार्ग पर चलना सिखाता हो, वही सन्त होता है । दिवाकरजी महाराज इस कसौटी पर खरे उतरते हैं वे वास्तव में सच्चे सन्त थे। इन्होंने गिरते हुए सामाजिक मानदण्डों को सम्बल दिया और उनमें नये प्राण फंके । इस दृष्टि से सन्त मुनि दिवाकरजी महाराज जैन मुनि ही न थे, मनुजों के महामुनज थे। वे त्याग और समर्पण के प्रतीक थे, निष्कामता और निश्छलता के केन्द्र थे, निर्लोम और निर्वेर, अप्रमत्तता और साहस, निर्भीकता और अविचलता की साक्षात्कार मूर्ति थे।
जैन दिवाकर ? नहीं, वे तो जन-जन के दिवाकर थे, प्राणिमात्र के दिवाकर थे । जिन्होंने समाज की रगों में नया और स्वच्छ लह दिया। उनकी वाणी और चरित्र में एकरूपता थी, उनके शब्द और कर्म एक रूप थे। उनकी कथनी और करनी में अन्तर नहीं था। 'दयापालो' कहने से पहले वे मन से, वचन से और कर्म से इसकी पालना पहले करते थे। इसलिए ऐसे युगपुरुष सन्त को सच्ची श्रद्धांजलि यदि हम देना चाहें तो वह हमारे निर्मल प्रामाणिक आचरण से ही सम्भव है।
समन्वयकारी सन्त मुनिश्री ने सांस्कृतिक सामञ्जस्य स्थापित करने में भी पहल की। समन्वयकारी दो विरोधी तत्वों का मेल कराने वाला होता है। उसे अपने विचार को मनवाने में और दूसरों के विचारों को मानने में ताल-मेल बैठाना पड़ता है। झुकना और झुकाना और मध्यम मार्ग खोज निकालना यह विशेषता सन्त दिवाकरजी महाराज में थी। आपका विश्वास उदाहरण देने में नहीं था, उदाहरण बनने में था। सन्तों का जीवन होता भी ऐसा ही है । सन्त वक्ता कम होते हैं । सन्तों का जीवन चारित्रिक विशेषताओं का पंज होता है। अपने चारित्र्य बल से-अपने आत्मबल से, वे दूसरों के जीवन को जीतते हैं। सन्त दिवाकरजी महाराज का जीवन भी तेजोमय था, वे पहले अपनी करनी देखते थे, फिर कथनी करते थे। उन्होंने कोटा चातुर्मास के एक अवसर पर कई सम्प्रदायों के साधु-सन्तों, मुनियों को एक मंच पर लाकर उपस्थित किया। उन्होंने राव-रंक, अमीर-गरीब, किसान-मजदूर,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org