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श्री जैन दिवाकरम्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३५० :
कोढ़ को छिन्न-भिन्न करने हेतु समय-समय पर धर्म के नाम अलग-अलग सम्प्रदाय बनते रहे हैं, बन रहे हैं और बनेंगे भी।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब भी इस वसुन्धरा पर पापाचार चरमसीमा को लांघ गया, जब धरती माता पाप के भार से संत्रस्त हो उठती है, जब पाशविक प्रवृत्तियाँ समाज में जन्म ले लेती हैं, जब धर्म और न्याय का गला घोंटा जाता है, जब चारों ओर भीषण रक्तपात, हत्या, लूटमार और अग्निकाण्ड के दृश्य दिखाई देने लगते हैं, तभी इन विषली प्रवृत्तियों का दमन करने, सुख-शान्ति एवं समृद्धि का सन्देश देने मानव कल्याणार्थ महापुरुषों का जन्म होता है ।
जब वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों ने समाज में अन्धविश्वास और रूढ़ियों, गलत परम्पराओं को जन्म दे दिया; तब इसी धरती पर माता त्रिशला की गोद में भगवान महावीर ने जन्म लेकर सत्य और अहिंसा का शंखनाद गुंजाया। आधुनिक युग में जब झूठ-कपट, छल-छद्म एवं शोषण का भूत समाज में ताण्डव नृत्य करने लगा, तब इसी पवित्र भूमि पर महात्मा गाँधी ने जन्म लेकर महावीर और बुद्ध के सत्य एवं अहिंसा के माध्यम से मानवता का संदेश पहुंचाया।
यह दृश्यमान संसार द्वन्द्वों का अजायबघर है। संसार द्वन्द्वमय है और द्वन्द्व ही संसार है । जीव-अजीव, जंगम-स्थावर, अन्धकार-प्रकाश, सुख-दुख, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म आदि द्वन्द्वों का जहाँ खेल होता है वहीं संसार है । इस अनन्त संसार रूप समरभूमि में कभी पुण्य का प्राधान्य होता है तो कभी पाप का। कभी दुनिया में सुख-शान्ति का साम्राज्य होता है तो कभी भयंकर ताण्डव नृत्य । कभी गगन से देवगण सुमनवष्टि करते हैं, तो कभी धरती माँ की छाती पर बम के गोले बरसते हैं। कभी शान्ति का निर्झर प्रवाहित होता है, तो कभी रक्त की सरिता भी बहती है।
जब चारों ओर इस द्वन्द्वात्मक दृश्य के बीच मानव दानव बनकर अपना अस्तित्व कायम करना चाहता है, तब कोई न कोई महापुरुष मानवता की रक्षार्थ माँ धरती की गोद में जन्म लेकर मानवता का संदेश देते हुए अवतरित होता है ।
समाज एवं राष्ट्र निर्माण में सदा तीन शक्तियों का प्रभुत्व रहा है-(१) मातु-शक्तिजिसके द्वारा पारिवारिक जीवन को संस्कारवान बनाया जाता है वह जीवन की आधारशीला नारी है। इसलिये भारतीय ऋषियों ने प्रथम सूत्र 'मातृ देवो भव :" को दिया है । भगवान महावीर से लेकर वर्तमान युग तक नारी जाति के विकास एवं प्रगति हेतु कई कार्य हुए हैं। (२) जन-सेवक-शक्तिइसके माध्यम से समाज एवं राष्ट्र में न्याय-नीति और सत्यनिष्ठा की स्थापना प्रचार एवं प्रसार का दायित्व सम्पन्न होता है। (३) सन्त-शक्ति-समाज एवं राष्ट्र में संस्कृति, सभ्यता एवं धर्म की स्थापना तथा रक्षा का काम साधु-सन्तों का होता है।
संसार में प्राणी मानव जन्म लेकर संसार रूपी सागर की यात्रा पूर्ण करता है। किन्तु ऐसे मी कुछ मानव होते हैं, तो स्व-पर-हित करके ही अपना जीवन सफल बना लेते हैं । जीवन उन्हीं का सफल है, जिन्होंने अपने इस जीवन को प्राप्त कर आध्यात्मिक खोज में बिताया है, जिसने संसारचक्र में जन्म लेकर अपने वंश की, अपने समाज एवं देश की, अपने धर्म और संस्कृति की सेवा की हो।
ऐसे ही पुरुषरत्नों में, सन्तों की शृखला में एक बालक ने आज से सौ वर्ष पूर्व-वि० सं० १९३४ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी रविवार को नीमच (मालवा) निवासी श्री गंगारामजी
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