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॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३४६ :
कर सकता है और धर्म का अधिकारी बन सकता है । अपनी इस मान्यता के अनुसार सदा से ही जैन सन्तों ने इस कलंक को मिटाने का प्रयास किया है । अस्पृश्यता का सबसे भयंकर दुषित रूप तब प्रकट होता है जब किसी निरपराध पर झूठा दोष मढ़कर उसे अस्पृश्य करार दे दिया जाता है। और उसे मानवीय धरातल से भी नीचे गिरा दिया जाता है।।
ऐसा ही एक मामला बड़ी सादड़ी में हुआ। कुछ स्त्रियों ने अन्य स्त्रियों पर अस्पृश्य होने का झूठा कलंक लगा दिया। समाज में मन-मुटाव हो गया। अनेक सन्तों के प्रयास से भी यह बखेड़ा न निबट सका । इसे सुलझाने का श्रेय भी जैन दिवाकरजी महाराज को प्राप्त हुआ। उनके सदुपदेश से यह बखेड़ा निपट गया और समाज का मनोमालिन्य दूर हुआ।
इन्दौर में आपके व्याख्यानों से प्रभावित होकर वहाँ के डिस्ट्रिक्ट सूबेदार ने विभिन्न स्थानों पर बलि-प्रथा बन्द कराई । परिणामस्वरूप १५०० पशुओं को अभयदान मिला। धर्म के नाम पर हिंसा की कुरीति को दूर करने का यह कितना शक्तिशाली कदम था ।
संवत् १९७६ में आप विचरण करते हुए मन्दसौर पधारे । वहाँ जनकपुरा बजाजखाना आदि स्थलों पर समाज सुधार सम्बन्धी प्रवचन हुए। परिणामतः स्थानीय पोरवाल बन्धुओं ने कन्या-विक्रय न करने का संकल्प किया। ओसवालों में बहुत से सुधार हुए । बाल-विवाह, वृद्धविवाह जैसी कुप्रथाएँ सदा के लिए बन्द कर दी गई।
महागढ़ में आपश्री के एक ही व्याख्यान से कन्या-विक्रय की कुप्रथा सदा के लिए समाप्त हो गई। गौरक्षा और विद्या प्रचार
महाराजश्री ने देवास में एक दिन 'धन के सदुपयोग' पर व्याख्यान दिया और दूसरे दिन 'गौरक्षा' तथा 'विद्या' पर प्रवचन इतने प्रभावशाली थे कि लोगों ने इन कार्यों के लिए धन का त्याग करके उसका सदुपयोग किया। नारियों ने अपने गहने तक उतार दिये । यह धन के सदुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण है।
मांडल में आपश्री के उपदेश से लोगों ने झूठी गवाही देने का त्याग किया। विधवाओं के कर्तव्य की ओर संकेत
विधवाएँ कमी-कभी भावावेग में, या विवश होकर अपने शील को खण्डित कर लेती हैं। कुशील आचरण के परिणामस्वरूप जब नाजायज सन्तान का जन्म होता है तो वह घबरा जाती हैं । समाज में अपयश के भय से वह अपने नवजात शिशु को भी निर्दय होकर अरक्षित ही यत्र-तत्र कूड़ा-कर्कट पर डाल आती है।
ऐसे ही एक घटना रायपुर (बोराणा) में जैन दिवाकरजी महाराज के समक्ष आई।
बैशाख बदी ५ का दिन था । एक सद्यःजात शिशु लोगों को भैरोजी के चबूतरे पर मिला। बालक मरणासन्न था। हाकिम ने उसकी जाँच की। शिशु वहीं लाया गया जहाँ आपश्री प्रवचन दे रहे थे। शिशु को इस दशा में देखकर आपका हृदय भर आया। लोगों में कानाफूसी होने लगी। जब विश्वास हो गया कि बालक किसी विधवा का है तो आपने 'विधवा के कर्तव्य' पर एक जोशीला और सारगर्भित भाषण दिया। इसमें विधवाओं को अपने शील पर दृढ़ रहने की प्रेरणा दी । शारीरिक भूख को दबाने के लिए आत्मचिन्तन करने का उपाय बताया ।
यदि सभी विधवाएँ आपके मार्ग पर चलें तो भ्र णहत्या और शिशुहत्या आदि जैसे निद्य कर्मों का समूल नाश हो जाय ।
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