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:३४१: पीड़ित मानवता के मसीहा
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
करने की अपेक्षा वेश्यावृत्ति को दूर करने का दृढ़ संकल्प आपने किया और पाली, राजस्थान में मंवत् १९८० में आपके ओजस्वी वक्तव्यों से प्रभावित होकर 'मंगनी' और 'बनी' नामक वेश्याओं ने आपके समक्ष आजीवन शीलव्रत पालने की प्रतिज्ञा की तथा 'सिणगारी' नामक वेश्या ने तो एक पुरुषव्रत का संकल्प लिया। सचमुच जगद्वल्लभ श्री दिवाकरजी महाराज का यह कार्य ऐतिहासिक है।
गिरे वातावरण को ऊपर उठाने में महाराजश्री ने स्थान-स्थान पर जाकर लोगों को प्रभाव पूर्ण तथा रोचक दृष्टान्तों के माध्यम से उनके अंदर सुप्त भावनाओं को जागृत किया। जीने की कला दी। सच्चे सुख का मार्ग बताया । सचमुच वे सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी थे और थे एकता-समता के जागरूक प्रहरी । उन्होंने ऊँच-नीच के भेद-भाव की अन्तर रेखा को समाप्त करने का अथक प्रयत्न किया। उनके वक्तव्य से प्रभावित होकर मोची समाज के श्री अमरचन्द्रजी, कस्तूरचन्द्रजी तेजमलजी आदि कई परिवारों ने शराब, जीवहिंसा, मांस आदि दुर्व्यसनों का त्याग करके जैनधर्म को अंगीकार किया।
___ अनेक उदाहरण सामने आते हैं, जहाँ पर व्यक्ति महाराजश्री के सम्पर्क में आते ही धर्ममय हो जाते थे, धार्मिक बन जाते थे क्योंकि महाराजश्री स्वयं जीते-जागते धर्मालय थे। मानस-पटल पर पड़े अज्ञानरूपी पर्दे जीर्ण-शीर्ण हो जाते थे। निश्चित ही यह दिवाकरजी महाराज की थीअद्भुत तेजस्विता और व्याप्त उनमें ओजस्विता।
संवत् १९८० में महाराज श्री चौथमलजी महाराज का चातुर्मास मध्यप्रदेश में स्थित इन्दौर नगरी में होना सुनिश्चित हुआ था। व्याख्यानस्थली में महाराजश्री का 'जीव-दया' पर सुन्दर, रोचक ढंग से प्रभावशाली प्रवचन हो रहा था। उनकी प्रवचन शैली से आकर्षित होकर नजर मुहम्मद कसाई ने प्रवचन में ही खड़े होकर अपने निम्न उद्गार व्यक्त किए हैं-"मैं इस भरी सभा में कुराने-शरीफ की साक्षी से प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज से ही कभी भी, किसी भी जीव की हिंसा नहीं करूंगा।" इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि महाराजश्री की वक्तव्य शैली कितनी मधुर थी। सचमुच उनकी वाणी में ज्ञान की गौमती प्रवाहित थी और थी मिश्री की सी मिठास।
"उपदेश देना सरल है, उपाय बताना कठिन है" यह कथन कवीन्द्र रवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ जी टैगोर का निश्चित ही किसी सीमा तक सार्थक है, सही भी है। जैसा कि आज प्रायः देखा जाता है कि वक्ता अपने अच्छे-अच्छे शब्दों के गठन से तथा सुंदर वाक्याञ्जलि से कथाओं-विकथाओं के माध्यम से श्रोत मण्डली को मंत्र-मुग्ध तो कर देता है, किन्तु अन्ततोगत्वा वह सब निरर्थक होता है। ऐसे वक्तव्य से श्रोता, जैसा वक्तव्य से पूर्व था वैसा ही बाद में रहता है अर्थात् नितान्त कोरा । उसके हाथ कुछ नहीं आता। वास्तव में चित्त की मलीनता ही व्यक्ति को मैला करती है, उसकी वाणी को निष्प्रभाव बनाती हैं । निश्चय ही सच्चे सन्त का शक्ति-औजार उसकी वाणी हुआ करती है जो किसी शक्तिशाली को धराशायी कर सकती है। ऐसे ही सन्त श्री जैन दिवाकरजी महाराज थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे अपनी बक्तत्व कला में इतने निष्णात थे कि वे उपदेश के
१ जैन दिवाकर, श्री केवलमुनि जी, पृष्ठ ६६ । २ वही, पृ० १६७। ३ जैन दिवाकर, श्री केवलमुनि, पृष्ठ १७१ ।
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