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श्री जैन दिवाकरम्मति-ग्रन्थ ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ६
जहाँ तक साधारण साधक नहीं पहुँच पाते । महान व्यक्तित्व का एक आवश्यक गुण है-निरभिमानता। साधारणत: मानव थोड़ी सी प्रसिद्धि पाकर ही फूल उठते हैं, अभिमान में भर जाते हैं। छोटे-छोटे तलैयों के समान उफन पड़ते हैं । लेकिन जैन दिवाकरजी महाराज कभी अपनी प्रसिद्धि से फूले नहीं, सागर के समान गम्भीर बने रहे । उनका विशाल हृदय फलदा वृक्ष की तरह और भी विनम्र हो गया। उनके पारस स्पर्श से अनेक लोहे सदृश मानव स्वर्ण की तरह चमक-चमक उठे। कलुषित हृदय निर्मल बन गए, आसमान में उड़ने वाले (अभिमानी) जमीन पर चलन लगे (विनम्र बन गए) फिर भी उन्हें कभी यह विचार नहीं आया कि मैंने कुछ किया है। कर्तृत्व-अहंकार तो उनमें था ही नहीं इसीलिए उनमें अभिमान नहीं आया, अहंकार नहीं जागा। वे तो केवल जिनशासन की महत्ता और गुरुकृपा का प्रसाद मानते रहे, विनम्र और विनयशील बने रहे । क्योंकि वे जानते थे कि जिनशासन और आत्मोन्नति का मूल विनय है।
विनय, सदाचरण, शुद्ध श्रमणचर्या, तपोभूत जीवन, वाणी-विवेक, करुणापूरित हृदय आदि अनेक सद्गुणों के संगम से आपका व्यक्तित्व विशाल और विराट हो गया था। आध्यात्मिक दिवाकर
मुनिश्री चौथमलजी महाराज भौतिक नहीं वरन् आध्यात्मिक, गगन के नहीं; वरन् धरा के दिवाकर बनकर चमके । भौतिक दिवाकर के प्रकाश के समान उनमें ताप नहीं वरन् तप की ज्योति थी। उनमें दाहकता नहीं, किन्तु जीवनदायी ऊष्मा थी। उनका जीवन तप से चमक रहा था। अपने तपोमय जीवन के प्रकाश से उन्होंने जन-जन का अन्तर्हृदय आलोकित किया। सम्पर्क में आने वाले नर-नारियों के मन के कलुष को धोकर उसे ज्ञान और सदाचार की ज्योति से चमकाया। लोगों के अवगुणों और दुर्व्यसनों को मिटाकर उनमें गुणों का विकास किया। जिस प्रकार बालरवि की किरणें सुखद और स्फूर्तिदायी होती हैं, इसी प्रकार उनके महान् व्यक्तित्व की वचनरूपी किरणें सुखद और स्फूर्तिदायिनी थीं। पाप-पंक और प्रमाद-निद्रा को मिटाने की अद्भुत शक्ति तथा क्षमता थी। जो भी उनके सम्पर्क में आया, कुन्दन की तरह चमक उठा। एकता के अग्रदूत
आपश्री जब दीक्षा लेने का संकल्प कर रहे थे, तब आपके ससुर श्री पूनमचन्दजी ने दीक्षा से विरत करने के लिए कहा था-"श्रमण संघ में भी मनोमालिन्य है, अनेक सम्प्रदाय हैं।' यह सुनकर आप दीक्षा से विरत तो हए नहीं, वरन मन में यह सोच लिया कि 'मैं जैन-संघ में विद्यमान इन विभिन्न सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने का भरपूर प्रयास करूंगा।' श्रमण बनने के बाद भी आपकी यह इच्छा सदैव ही बलवती रही। जब भी अवसर मिला, आपने एकता का प्रयास किया। यहाँ तक कि एक श्रमण संघ हो इसके लिए आप अपने सम्प्रदाय की उपाधियाँ तक त्यागने को तैयार हो गए। आचार्य पद भी (ब्यावर के जैन श्रमण सम्मेलन में) श्री आनन्दऋषि जी महाराज को दिलवाया। अजमेर में पूज्य श्रीलालजी महाराज के स्वागतार्थ आप स्वयं पाँच साधुओं के साथ ब्यावर मार्ग पर पहुँचे । ढडाजी की हवेली में जाकर उनसे सम्मिलित प्रवचनों की प्रार्थना की। रामगंज मण्डी में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यश्री की खोटी आलोचना भी समताभाव से सहन की। विरोध या परिहार में एक शब्द तक भी न कहा । दिगम्बर जैन आचार्य सूर्यसागर जी महाराज ने ज्यों ही सम्मिलित प्रवचन की इच्छा प्रकट की तुरन्त ही आपने सहर्ष उनका हार्दिक स्वागत किया । २००७ के कोटा चातुर्मास में तो आपकी एकता भावना फलवती होती दिखाई देने
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