________________
: ३३५ : श्रमण-परम्परा में ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ
स्वयं के जीवन के प्रति कितना निराश है। उसके अन्धकारावृत्त मार्ग को प्रकाश पुंज से आलोकित करने वाला कोई नहीं है । आज मनुष्य इतना स्वार्थान्ध हो रहा है कि स्वार्थ साधन के अतिरिक्त उसे और कुछ भी रुचिकर प्रतीत नहीं होता। ऐसी स्थिति में परम करुणामय मानवता-सेवी सन्त पूरुष श्री जैन दिवाकरजी महाराज का अन्तःकरण भला कैसे चुप रहता । उन्होंने उस निरीह मानवता का पथ आलोकित करने का संकल्प किया और सर्वात्मना इस कार्य में मंलग्न हो गए। उनके कार्यक्षेत्र की यह विशेषता थी कि वे झोंपड़ी से लेकर महलों तक पहुँचते थे। उनकी दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे और राजा-रंक तथा धर्म-जाति का कोई भेद नहीं था। सभी को समताभावपूर्वक वीर वाणी का अमृतपान करा कर बिना किसी भेदभाव के सन्मार्ग पर लगाने का दुरूह कार्य जिस निर्भयता और दृढ़ता से मुनिश्री ने किया वह अलौकिक एवं अविस्मरणीय है। इस बात के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं कि दुःखियों, पीड़ितों, पतितों और शोषितों के वे सहज सखा थे। दलितों का उद्धार उनकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति थी और उनका कष्ट देखकर वे शीघ्र ही द्रवित हो जाते थे। मुनिश्री यद्यपि स्वयं परिग्रह रहित एक साधु थे, किन्तु ज्ञान दान के द्वारा वे दुखियों के दुःख दूर करने का सहज पुरुषार्थ करते थे। उनके पुरुषार्थ में एक विशेषता यह थी कि उसका तात्कालिक परिणाम दृष्टिगोचर होता था। उन्होंने धर्म-प्रचार हेतु जिस क्षेत्र को चुना उसमें पिछड़ापन अत्यधिक रूप से व्याप्त था और निम्न वर्ग के लोगों का ही उसमें अधिकांशतः निवास था। आदिवासियों के बीच भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ को सार्थक बनाया और लोगों के जीवन स्तर में सुधार किया। उन्होंने उन लोगों को मनुष्य बनने और मनुष्य की भाँति जीने की प्रेरणा दी।
आत्म-साधना के पथ पर आरूढ़ होकर निरन्तर पाँच महाव्रतों का अखण्ड रूप से पालन करने वाला, दस धर्मों का सतत अनुचिन्तन, मनन और अनुशीलन करने वाला बाईस परीषहजय तथा रत्नत्रय को धारण करने वाला शुद्ध परिणामी, सरल स्वभावी अपनी अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्म-साक्षात्कार हेतु प्रयत्नशील तथा श्रमणधर्म को धारण करने वाला साधु ही श्रमण कहलाता है और निज स्वरूपाचरण में प्रमाद नहीं होना उसका श्रामण्य है। श्रमण सदैव राग-द्वेष आदि विकार मावों से दूर रहता है। क्योंकि ये विकार भाव ही मोह-ममता एवं कटुता-ईर्ष्या के मूल कारण हैं जिनसे सांसारिक बन्धन होने के साथ ही जीवन में पारस्परिक कलह एवं लड़ाई-झगड़ा की सम्भावनाओं-घटनाओं को प्रोत्साहन मिलता है। उपर्युक्त विकार मावों से श्रमण की आत्म-साधना में निरन्तर बाधा उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य एवं मन्तव्य-पथ से विचलित हो जाता है। इसी प्रकार क्रोध-मान माया-लोभ ये चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बन्धनों में बाँधने वाले तथा अनेक प्रकार के दुःखों को उत्पन्न करने वाले मुख्य मनोविकार हैं। आत्म-स्वरूपान्वेषी साधक श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, ताकि वह अपनी साधना एवं लक्ष्य साधन के पथ से विचलित न हो सके । चंचलमन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है। आत्म-साधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए उपयुक्त राग-द्वेष आदि विकार भाव तथा क्रोध आदि चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है।
श्रमण के जीवन में संयम एवं तपश्चरण के आचरण का विशेष महत्व है। उसका संयम पूर्ण जीवन उसे सांसारिक वृत्तियों की ओर अभिमुख होने से रोकता है और तपश्चरण उसकी कर्म-निर्जरा में सहायक होता है। संयम के बिना वह तपश्चरण की ओर अमिमुख नहीं हो सकता और तपश्चरण के बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में मोक्ष प्राप्ति हेतु आत्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org