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:३३३ : श्रमण-परम्परा में ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
प्राणिमात्र के प्रति असीम रूप से व्याप्त हो जाती है। पूज्य गुरुदेव की भी यही स्थिति थी। यही कारण था कि उनका जीवन ध्येय मात्र आत्म-कल्याण तक ही सीमित नहीं रहा और वह जनकल्याण के साथ-साथ प्राणि कल्याण तक व्याप्त हो गया। विश्व की सम्पूर्ण मानवता उनकी कल्याण भावना की परिधि में समाहित हो गई। मनुष्य मात्र में उन्होंने कभी भेदभाव पूर्ण दृष्टि नहीं अपनाई। यही कारण है कि समाज के प्रत्येक वर्ग ने उनकी अमृतमयी वाणी का लाभ उठाया। उनके व्यापक दृष्टिकोण के कारण संकीर्णता, साम्प्रदायिकता एवं संकुचित मनोवृत्ति से ऊपर उठकर वे सदैव जनमानस को आन्दोलित करते रहे और मानवीय मूल्यों को उनमें प्रतिष्ठापित करते रहे।
वे एक ऐसे महामानव थे जो सम्पूर्ण मानवता के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित थे। किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित होकर उन्होंने समाज के निम्न, पीडित, दलित और उपेक्षित वर्ग के लोगों के नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक उत्थान के लिए अपने सदुपदेश एवं आह्वान के द्वारा जो क्रान्तिकारी कार्य किए हैं, वे इतिहास के पृष्ठों में चिरकाल तक सुवर्णाक्षरांकित रहेंगे। उन्होंने समाज की पीड़ित मानवता के तमसाच्छन्न पथ को अपने उपदेश-आलोक के द्वारा न केवल आलोकित किया; अपितु अन्यान्य बाधाओं के निराकरण में अद्वितीय चमत्कार पूर्ण घटनाओं के द्वारा अपनी अन्तःशक्ति का प्रयोग किया। उनके कार्यों में सर्वत्र मानवीय शक्ति ही विद्यमान थी । कहीं देवी शक्ति या अमानूष वृत्ति की झलक दिखाई नहीं दी। इससे उन्होंने यही सिद्ध किया कि मानवीय आन्तरिक शक्ति का विकास साधारण मनुष्य को भी सर्वोच्चता के शिखर पर आरूढ़ कर देता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि समस्त मानवीय प्रवृत्तियां सदाशय पूर्ण, सात्विकता युक्त एवं सदिच्छा से प्रेरित हों। स्वार्थ का उनमें नितान्त अभाव हो और परिहित का उदात्त दृष्टिकोण उनमें समाहित हो। अज्ञान, मिथ्याज्ञान, अशिक्षा एवं कुरीतियों से ग्रस्त जनमानस में उन्होंने अपनी ज्ञान-रश्मियों के द्वारा जो आलोक प्रसारित किया उसने न जाने कितने लोगों के जीवन में क्रान्तिपूर्ण परिवर्तन ला दिए। समाज के अविकसित कमलों के लिए वे सूर्य की भाँति एक अद्वितीय पुरुष थे। समाज को एक नई दिशा और आलोक दृष्टि देने के कारण जनता जनार्दन ने उन्हें "जैन दिवाकर" के नाम से सम्बोधित किया। सूर्य की भाँति अन्धकार दूर कर आलोक देने के कारण वे "दिवाकर" हए और अहिंसामय संयम पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए मार्ग निर्देश देने के कारण वे "जैन दिवाकर" कहलाए। जैन शब्द का प्रयोग संकुचित साम्प्रदायिक भाव में न कर उसके व्यापक अभिप्राय में करना ही अभीष्ट है। जन्मना ही कोई जैन नहीं होता; अपितु उत्कृष्ट कर्म, संयमपूर्ण जीवन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही "जैनत्व" का प्रतिपादक है।
भारत में जैन आचार और विचार ने जिस संस्कृति विशेष को जन्म दिया वह सात्विकता, पवित्रता, शुद्धता एवं दृष्टिकोण की व्यापकता के कारण अतिश्रेष्ठ एवं उन्नत मानी गई । उसने जनसामान्य को जो दिशा दृष्टि प्रदान की उसमें मनुष्य आत्म-हित के द्वारा अक्षय सुख व शान्ति का अनुभव करने लगा। उस संस्कृति में ही जब श्रमण धर्म और उसके आचार-विचार का भी विश्लेषण पूर्वक अभिनिवेश हुआ तो चिरन्तन सत्य के रूप में अभ्युदय एवं निश्रेयसपरक वह संस्कृति 'श्रमण संस्कृति' के नाम से अभिहित हुई। श्रमण संस्कृति के स्वरूप निर्माण, अभ्युत्थान एवं विकास में श्रमणों एवं श्रमण-परम्परा का जो अद्वितीय योगदान है उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। श्रमण शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करने की दृष्टि से कहा गया है-"श्राम्यति तपः क्लेशः सहते इति श्रमणः।" अर्थात् जो स्वयं तपश्चरण करता है, क्लेश को सहता है वह 'श्रमण' कहलाता है।
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