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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३२८ :
पतितों, शोषितों, दीन-दु:खियों व पीड़ितों की पीड़ा हरण करने में केन्द्रित की। उनकी दृष्टि में जनजनेतर, अमीर-गरीब, राजे-महाराजे, ठाकुर-उमराव, खटीक, मोची, हरिजन, कलाल में कोई भी भेद नहीं था। मानव मात्र की कल्याण भावना लेकर आप सर्वजन प्रिय बने ।
उदयपूर का प्रसंग है । जब लोगों ने कहा कि हमारे यहाँ ५०० घर हैं तो उन्होंने बड़ी गहराई से कहा
"५०० घर के सिवाय जो लोग यहां बसते हैं, हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक वे सब हमारे हैं।"
-तीर्थकर नव०, विस० ७७५१०२ यही कारण है कि इनका सन्देश महलों में हो या झोंपड़ियों में, गांवों में हो या नगरों मेंसमान रूप से गुंजायमान है। जीवन में वास्तविक समता लाने का अथक प्रयास कर दिवाकरजी महाराज ने सिद्ध कर दिया कि आदमी केवल आदमी है।
लेकिन यह समभाव कहाँ से आयगा? यह तो आत्मानुभूति से सम्भव है । जब हमारी आत्मा यह समझ ले कि 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' ही समानता का आधार है तो फिर कहाँ है दुःख, कहाँ है भेद ? उन्होने बताया
___ "समभाव ही आत्मा के सुख का प्रधान कारण है । समभाव उत्पन्न हो जाने पर कठिन से कठिन कर्म भी सहज ही नष्ट हो जाते हैं।"
"समता के शान्त सरोवर में अवगाहन करने वाला अपने समभाव के यन्त्र से समस्त शब्दों को सम बना लेता है।"
दिवाकरजी महाराज का समता रूपी मन्त्र इतना प्रभावशाली था कि जैन समाज में वैमनस्य दूर हुए तथा संगठन व ऐक्यता का वातावरण बना। यही नहीं अनेक स्थानों पर अजैन समाज भी प्रभावित हुए बिना न रह सका । कतिपय उदाहरण ज्ञातव्य हैं
हमीरगढ़ में ३६ वर्षों से हिन्दू छीपाओं में पारस्परिक वैमनस्य था। आपके सदुपदेश से दो दलों में माधुर्य का संचार हुआ और परस्पर मिलन भी।
गंगरार व चित्तौड़गढ़ के ब्राह्मण समाज में जाति की तड़ें (दरारें) थीं, जो मिटकर एकाकार हुए।
संक्षेप में कहें तो दिवाकरजी महाराज ने एक मानस तैयार किया, जिससे लोगों की दृष्टि उदार बनी । एक-दूसरे के प्रति पक्षपात व द्वेष न हो एतदर्थ उनका संदेश विचारणीय है"पक्षपात पूर्ण मानस उचित-अनुचित का विवेक नहीं कर सकता।"
-वि०वि०मा०५/८७ "दुषी का दिल कभी आकुलता-रहित नहीं होता।" -दि० दि० मा० ११/९३ "तुम दूसरे का बुरा चाहकर अपना ही बुरा कर सकते हो।"
-दि० दि० मा० ११/६६ मनुष्य, सर्वप्रथम मनुष्य आज का मानव सभ्य, सुसंस्कृत एवं शिक्षित होते हुए भी स्वयं को विस्मृत किये हुए है। वह अपना व दूसरों का परिचय ऊपरी तौर पर ही प्रस्तुत करता है जबकि आवश्यकता है अपने
१ दिवाकर दिव्य ज्योति भा० १६, पृ० ५१ २ दिवाकर दिव्य ज्योति भा० २, पृ० २४०
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