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: ३२५ : भारत के एक अलौकिक दिवाकर
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
तथा आंख में ज्योति ये तीनों अपेक्षित चारित्र, हृदय से वैराग्य तथा ज्ञान का
मंजिल पर पहुंचने के लिए चरणों में वेग, हृदय में उत्साह हैं। ठीक इसी तरह आत्म- सिद्धि पाने के लिए जीवन में सम्यक् प्रकाश ये तीनों तत्त्व आवश्यक माने जाते हैं। आपका जीवन इन तीन तत्त्वों का एक त्रिवेणी संगम था । आप आत्मज्ञानी तो थे ही इसके साथ-साथ आप एक उच्चकोटि के विद्वान् भी थे । जैन मुनि होने के नाते से आपने जैनागमों का गहन अध्ययन किया। यह एक प्रकार से आपके अपने परम कर्तव्य का परिपालन मात्र था । यह तो अहिंसा धर्म की तरह आपके जीवन का परम धर्म था । किन्तु अन्य धर्मों के ज्ञानोपवन के कमनीय फूल चुनकर आपने अपने ज्ञानाञ्चल में संग्रहीत किये। यह आपकी ज्ञान साधना का विशेष अंग था। आपका ज्ञान केवल वाणी विलास या बुद्धि का चमत्कार बनकर नहीं रहा । आपने उसे चिन्तन के द्वारा आत्मसात् भी किया। यह ज्ञान फिर आपके अन्तरङ्ग में अनुभूति के रूप में प्रगट हुआ । ज्ञान और अनुभूति का मधुर मिलन किसी भी साधक के जीवन में किसी अन्य जन्म की साधना के परिणामस्वरूप ही होता है। विद्वान् और ज्ञानी बनने के बाद आप एक कुशल प्रवचनकार भी बने। देखा गया है कि कुछ लोग विद्वान् तथा ज्ञानी तो खूब होते हैं, किन्तु अपने अन्तरङ्ग की बात दूसरे के अन्तरङ्ग में नहीं उतार सकते। किन्तु आप अपनी बात दूसरों के हृदय में उतारने में खूब प्रवीण थे । प्रकृति ने आपको इस प्रवचनपटुता के अलौकिक गुण से भी खूब विभूषित किया था। आपकी धर्मसभा एक समवसरण के रूप में लगती थी। आपकी ज्ञानगंगा में आत्म-स्नान करके सभी धर्मावलम्बियों को आत्म-सन्तोष मिलता था। आपके विराट् अध्ययन ने आपके चिन्तन को विराद बना दिया था। यही कारण था कि सभी धर्मों के लोग आपकी प्रवचन सभा की शोभा बनकर बैठते थे । झोंपड़ी के किसान व मजदूर, अट्टालिका के सेठ साहूकार तथा राज-भवनों के शहनशाह सभी आपकी वाणी का अमृतपान करने के लिए आतुर रहते थे। उस अलौकिक दिवाकर की ज्ञान रश्मियां हर छोटे-बड़े के मन को आलोक से भर देती थीं। कुछ विदेशी विद्वान् भी आपके व्यक्तित्व से आकृष्ट थे उन्हें भी आपका उपदेशामृतपान करने में आनन्द आता था । आपकी सप्रेरणा से बुनकर, मोची, चमार, खटीक आदि कितने हो कुसंस्कारी जनों ने अपने हृदय को आपके चरणों में समर्पित कर सदा के लिए सन्मार्ग ग्रहण कर लिया। आप अस्पृश्यता को भारत के माथे का कलंक समझते थे। आप जहाँ भी जाते थे वहाँ 'मानवमानव एक समान' का नारा लगाकर साम्यभाव की मन्दाकिनी बहा देते थे ।
शासक प्रजा पर शासन करते हैं, किन्तु आप शासकों के हृदय पर भी शासन करते थे। आप निस्सन्देह वीर थे, किन्तु मूक- पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर आप अधीर हो जाते थे । अभयदान का अभियान आपके इस कारुणिक हृदय का ही एक सुपरिणाम था। आप अपने युग के एक महान् शासन प्रभावक मुनीश्वर थे। संघ ऐक्य की योजना में आपका सहकार अविस्मरणीय एवं अद्वितीय रहेगा । संगठन समाज की रीढ़ है । आपके इस उपदेश से शासन की जड़ों को काफी बल प्रदान किया। कितने ही सामाजिक उपकार आपके जीवन के कीर्तिमान बनकर इस भारत- वसुन्धरा की शोभा बढ़ा रहे हैं। दिवाकर उदित होकर आखिर अस्त भी होता है। यह अलौकिक दिवाकर मी पार्थिव शरीर के रूप में एक दिन दुनिया की नजरों से ओझल हो गया किन्तु उसके चिन्तन एवं चारित्र का दिव्य प्रकाश उसके साहित्य के अमर पृष्ठों तथा इस धरती के विस्तृत वक्षस्तल पर युगों-युगों तक बना रहेगा ।
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परिचय :
[ भारत के पूर्वांचल में अनेक वर्षों से धर्मप्रचाररत ।
स्व० आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज के योग्य विद्वान शिष्य, ओजस्वी वक्ता ।]
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