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|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन
* कविरत्न केवलमुनि एक शाश्वत धर्म दिवाकर
दिवाकर अपनी सहस्र रश्मियों के साथ नित्य प्रातःकाल उदित होता है, दिन भर अन्धकार का नाश कर प्रकाश का प्रसार करता है और फिर संध्या के समय छिप जाता है। धरा पर गहन अन्धकार फैल जाता है। लेकिन धर्म दिवाकर की महिमा कुछ अद्भुत ही है। धर्म दिवाकर जब उदय होता है तो उसका प्रभाव क्षणस्थायी, एक-दो दिन अथवा वर्ष-दो-वर्ष का नहीं होता, वरन् युग-युगों तक आलोक फैलाता रहता है । गगन दिवाकर गिरि-कन्दराओं और अन्तगुफाओं का प्रगाढ़ अन्धकार नष्ट नहीं कर पाता, वहां उसकी किरणें नहीं पहुँच पातीं, लेकिन धर्म दिवाकर मानव के अन्तहदय में घनीभूत अन्धकार को नष्ट करके वहाँ आलोक फैला देता है । अज्ञान और मोह से आवत उसके अन्तर्चाओं में ज्ञान के प्रकाश की ज्योति जग उठती है। दिवाकर प्रतिदिन उदय होता है और धर्म-दिवाकर युगों बाद कभी-कभी। ऐसे ही धर्म दिवाकर थे मुनिश्री चौथमलजी महाराज; जिन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व, ओजस्वी वाणी और निर्मल चरित्र से जन-जन के हृदय में सदाचार की ज्योति जलाई थी। अहिंसा भगवती की स्थापना करके हजारों मूक पशुओं को अभय दान दिलवाया था । लोगों के हृदय से पाप को निकाल कर पुण्य की, सत्यधर्म की स्थापना की थी। आगम की भाषा में 'लोगस्स उज्जोयगरें' की शब्दावली को वे सार्थक करते रहे।
भारतीय जीवन का आधार : धर्म भारत अपने नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के लिए संसार में प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के निवासियों के हृदय में धर्म की प्रतिष्ठा सदा से रही है। अति प्राचीन काल में धर्म और अनेक धर्मनायकों ने इसी पूण्य धरा पर जन्म लिया था। इस देश में सन्तों का स्थान सम्राटों से बढ़कर रहा है। सम्राटों के मुकुट सन्तों के चरणों में झुके हैं। प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत से लेकर यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। शासक व श्रीमंत लोग अकिंचन-निग्रन्थ सन्तों के चरणों में सिर झुकाकर स्वयं को गौरवान्वित समझते रहे हैं।
धर्म और धर्मतन्त्र प्राचीन युग से चले आये धर्म में काल प्रभाव से मध्यकाल तक आते-आते अनेक विकृतियां आ गईं। धर्म का स्थान धर्मतन्त्र ने ले लिया। जो धर्म सदाचार पर आधारित था; उसमें बाह्याडम्बर घुस गया । बाह्यचिन्हों से धर्म और धार्मिकों की पहचान होने लगी। भारतीय संस्कृति की वैदिक और बौद्धधारा में मत-मतान्तर होने लगे। शिव के अनुयायी विष्णु भक्तों से द्वेष करने लगे। उनकी साधना और पूजा-अर्चना पद्धतियों में काफी अन्तर आ गया। एक-दूसरे से वे काफी दूर हो गये । यज्ञ के नाम पर देवों को प्रसन्न करने के लिए मूक पशुओं की बलि होने लगी। धीरे-धीरे यह परम्परा बन गई और राजाओं, धर्माधिकारियों, धर्मगुरुओं तथा साधारण जनता को इसने बुरी तरह जकड़ लिया। लोग हिंसा में धर्म मानने लगे और धर्म के मूलाधार-सदाचार, नैतिकता तथा अहिंसा को भूल गये।
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