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: २८५ : समाज सुधार के अग्रदूत"
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।।
दुष्कर्म का फल है ? यह किसने पैदा की? यह क्यों लगाई गई ? आदि । अथवा बुराइयों की उस आग को तत्काल बूझाने का भरसक प्रयत्न करने के बदले यही बौद्धिक या वाचिक व्यायाम करता रहे कि मैं क्या कर सकता है ? एक जीव या एक द्रव्य दूसरे जीव या दूसरे द्रव्य का क्या कर सकता है ? सभी अपने-अपने कर्मों के फलस्वरूप दुःख पाते हैं, बुराइयों में फंसते हैं ? कौन किसको सुधार सकता है ? अथवा अमुक व्यक्ति, समाज, वर्ग, धर्मसम्प्रदाय, जाति, ईश्वर, अवतार या धर्म-प्रवर्तक आदि निमित्तों को कोसता रहेगा, उन्हें इन बुराइयों के फैलाने में जिम्मेदार ठहरा कर, या समाज में फैली हुई बुराइयों या दोषों का टोकरा उन पर डालकर स्वयं को या अपनी उपेक्षा को जरा मी उत्तरदायी नहीं मानेगा?
बुराइयों की आग को आगे बढ़ने से रोकने या बुझाने का प्रयत्न न करने से साधुवर्ग के जीवन में क्या संकट आ सकता है ? इसका अनुमान तो सहज ही लगाया जा सकता है ? समाज की बुराई की वह उपेक्षित आग बहुत शीघ्र ही साधुवर्ग के दैनिक जीवन में प्रविष्ट हो सकती है, गृहस्थवर्ग की फूट या धर्मसंघ की वह फूट, वह वैमनस्य अथवा ईर्ष्या-द्वेष की आग साधुवर्ग पर अतिशीघ्र असर डाले बिना नहीं रहती। जहाँ भी संघ में फट की आग लगी है, वहाँ उस संघ के समर्थक तथा विरोधी दोनों पक्ष के साधुसन्तों में आपसी कषाय, राग-द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या-आरोप-प्रत्यारोप, एक-दूसरे को बदनाम करने की वृत्ति ने जोर पकड़ा है। वीतरागता के उपासक साधुवर्ग के चरित्र को इस आग ने अपनी तेजी से आती हुई लपटों ने झुलसा कर क्षत-विक्षत कर दिया है । आए दिन इस प्रकार के काण्ड देखने-सुनने में आते हैं । गृहस्थवर्ग में प्रचलित जातीय या सामाजिक कुरूढ़ि का असर साधुवर्ग पर भी पड़ा है और साधुवर्ग उसी कुरूढ़ि की आग में स्वयं झुलसता और सिद्धान्त को झुलसाता नजर आया है।
अतः सिद्धान्तवादी साधु-समाज में बुराइयों की आग फैलते देखकर कभी चुपचाप गैरजिम्मेवार एवं अकर्मण्य बनकर सिर्फ उपाश्रय या धर्मस्थान की चहारदीवारी में बन्द होकर बैठा नहीं रह सकता; क्योंकि वह जानता है कि जिस समाज में वह रहता है, उसमें किसी भी प्रकार की विकृति प्रविष्ट होने पर राष्ट्र और समाज की तो बहुत बड़ी हानि है ही, उसके मन पर भी रागद्वष की लपटें बहुत जल्दी असर कर सकती हैं, उसे भी क्रोध और अभिमान का सर्प डस सकता है, इससे चारित्र की तो क्षति है ही. किन्त धीरे-धीरे उसकी सखशान्ति को भी क्षति पहुँच सकती है। इसलिए समाज-कल्याण एवं परोपकार की दृष्टि से, अथवा समाज की शुद्धि करके उसमें धर्म का प्रवेश कराने की दृष्टि से भी तथा अपनी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय जीवनयात्रा निविघ्न एवं निराबाध परिपूर्ण करने की दृष्टि से भी समाज में प्रवर्द्धमान इन बुराइयों की आग को तत्काल रोकने या बुझाने का प्रयत्न करना ही हितावह है। समाज-सुधार का प्रत्येक कदम साधुवर्ग के लिए स्व-पर-कल्याणकारक है।
जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता महामहिम श्री चौथमलजी महाराज इस तथ्य-सत्य से भलीभाँति अवगत थे। अवगत ही नहीं, वे समाज में प्रचलित बुराइयों को देखकर अपने प्रवचनों में उन बुराइयों पर कठोर प्रहार करते थे और समाज को उन बुराइयों से बचाने का भरसक प्रयत्न करते थे । वे अपनी आँखों के सामने प्रचलित बुराई से आंखें मूंद कर अन्यत्र पलायन नहीं करते थे। इसे वे साधुवर्ग की कायरता और दकियानुसीपन समझते थे। वे समझते थे कि दूषित वातावरण में साधुवर्ग की साधना सुचारु रूप से चल नहीं सकती। 'परोपकाराय सतां विभूतयः' इस आदर्श के अनुसार समाज के प्रति करुणाद्र होकर सामाजिक शुद्धि के लिए वे प्रयत्नशील रहते थे। वे पैदल
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