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| श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : २७४ :
एक पारस-पुरुष
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आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी महाराज
श्री लिहियाकरण
[उनकी वाणी में, वस्तुतः, एक अद्भुत-अपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी स्वणिम कान्ति-दीप्ति से जगमगा देता था। उनका प्रवचनामृत हजार-हजार रूपों में बरसा था । राजा-महाराजाओं से लेकर अछूतों, भोल-भिलालों और मजदूरों तक उनकी कल्याणकारी
वाणी पहुंची थी। वे सघन अन्धकार में प्रखर प्रकाश थे।"] भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है संत-संस्कृति, जो सन्तों की साधना-आराधना से ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित हुई है। वस्तुतः संतों की महिमाशालिनीचर्या और वाणी का इतिहास ही भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का इतिहास है । अतीत के अगणित संत-महात्माओं की जीवनी आज भी प्रेरणा का अजस्र-प्रखर स्रोत है। ऐसे ही थे श्रमण संस्कृति की गौरवमयी संत-परम्परा के महान् संत जैन दिवाकर, प्रखर वक्ता श्री चौथमलजी महाराज । उनके दर्शन करने का परम सौभाग्य मुझे सर्वप्रथम मिला मनमाड़ में । लम्बा कद, विशाल देह, गेहुँआ रंग, दीप्त-तेजोमय-शान्त मुखछबि, उन्नत भाल आज भी मेरे स्मति-पटल पर ज्यों-का-त्यों विद्यमान है।
तब स्थानकवासी समाज में अलग-अलग अनेक संप्रदाय थे। वह युग था जब संतवर्ग एकदूसरे के साथ व्यवहार-सम्बन्ध रखने में भी झिझक का अनुभव करता था। ऐसे विषम समय भी हम एक ही स्थान पर ठहरे थे । परस्पर आत्मीयतापूर्ण व्यवहार रहा । उन्होंने मुझे उस समय यही सुझाव दिया था कि तुम्हें अपने सम्प्रदाय को सुसगठित करना चाहिये । सभी को एक मंच पर मिलबैठकर विधान आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिये । उनका सुझाव शत-प्रतिशत अनुकरणीय था, क्योंकि संगठन में ही बल है, उत्कर्ष है। कलियुग में जन, धन, राज्य, अणु आदि कई शक्तियां हैं, किन्तु इन सब में सर्वोपरि शक्ति 'संघ-शक्ति' है । 'यूनाइटेड वी स्टेंड, डिवाइडेड बी फाल'--स्वामी विवेकानन्द का यह दिव्य घोष सभी के लिए सार्थक एवं अनुसरणीय है। इस तरह दो-चार दिन उनसे खूब खुलकर बातचीत हुई। परस्पर मधुर व्यवहार और अभूतपूर्व स्नेह रहा, इसके बाद भी कई बार मिलने के मौके आये और सौहार्द्र उत्तरोत्तर बढ़ता गया। कुछ वर्षों बाद संगठन की हवा चली । ब्यावर में नौ सम्प्रदायों के प्रमुख संतों का मिलन हुआ, उसमें ऋषि-सम्प्रदाय की ओर से मैं उपस्थित हुआ । अपने-अपने पूर्वपदों को छोड़कर सब का एक समुद्र बना, सब का विलीनीकरण हआ। उस समय जैन दिवाकरजी महाराज ने 'वर्धमान संघ' के आचार्यपद के चुनाव की बात कही और उसके लिए मेरा नाम सुझाया । वे स्वयं किसी पद के लिए उत्कण्ठित नहीं थे, इससे उनकी उदारता, संगठन के प्रति उत्कट प्रेम, सहिष्णुता तथा उदात्त विचार के दर्शन होते थे। संगठन के पूर्व भी उनके अनुयायी क्षेत्रों में जहाँ भी मेरा जाना हुआ, वहां उन्होंने सन्तों और श्रावकों को मुझे पूर्ण सहयोग देने का इशारा किया। इन सब प्रसंगों पर मुझे उनकी उदार आँखों के भीतर छलकती निष्काम-अकलुष आत्मीयता दिखायी दी थी।
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