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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २७२ :
'लाने वाले हैं, वे सामने नहीं आ रहे हैं। वे भाषा की दुर्बोधता और भावों की शास्त्रीयता में कैद हो गये हैं । चन्द लोगों तक उनकी पहुँच रह गयी है और वह भी परिपाटी के रूप में । उन्हें लगा कि सबका हित करने वाली सरस्वती, जो सतत प्रवाहिनी रही है, एक तालाब में आकर रुध गयी है । जन-जीवन से उसका सम्पर्क टूट गया है । यह सम्पर्क पुनः जुड़े, इसकी छटपटाहट मुनिश्री के दिल में थी । मुनिश्री अपने गृहस्थ जीवन में वहाँ के निवासी थे जहाँ तुर्रा-कलंगी के निष्णात खिलाड़ी रहते थे । इन्होंने भी वह सुने थे उनकी आवाज में बुलन्दगी थी और कविता जोड़ने में वे दक्ष थे । जैन दीक्षा अंगीकृत करने के बाद जब उन्होंने शास्त्राभ्यास किया तो ऐसे अनेक कथानकों और चरित्रों से उनका परिचय हुआ जिनके उदात्त आदर्श जीवन को उन्नत और कल्याणक बना सकते हैं। लोक-भूमि और लोक-धर्म से जुड़े हुए ऐसे कथानकों को मुनिश्री ने लोक-शैली के ख्यालों, लावणियों और चरितों में बांधना, गूंथना और गाना शुरू किया कि लोग देखते और तरसते रह गये । बोलचाल की भाषा में गजब का बंध, शेरों-शायरी और गजल का जमता रंग, संघर्ष से गुजरते हुए अपने शील और सत्य की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करते हुए चमकते चरित्र, मर्म को छूने वाली दर्द भरी अपील | साहित्य की संवेदना के धरातल से उठा हुआ, हृदय को विगलित करने वाला मर्मस्पर्शी संगीत, जो जन-जन की रंग-रग को छू गया ।
(२) जीवन का शुद्धिकरण मुनिश्री के जन्म की आविर्भावकालीन परिस्थितियाँ धार्मिकसामाजिक आन्दोलन के लिए अनुकूल थीं । आर्यसमाज, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए सक्रिय था । जैन समाज भी नानाविध कुरीतियों से ग्रस्त था । मुनिश्री ने जीवन-शुद्धि को धर्मचर्या का मुख्य आधार माना । उन्होंने देखा कि धर्म से शुद्धता और पवित्रता का लोप हो रहा है । सर्वत्र अशुद्धता और कथनी व करनी की द्वंतता का पाट चौड़ा होता जा रहा है । धर्म के नाम पर देवीदेवताओं के मन्दिर में पशुओं की बलि दी जा रही है । रक्त-रंजित हाथों से धार्मिक देवी-देवताओं को तिलक किया जा रहा है । मद्य, मांस और मादक पदार्थों के सेवन की प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और यह सब इस भ्रामक धारणा के साथ कि इससे जीवन शुद्ध होता है, धर्म पवित्र होता हैं । सामाजिक शुद्धता के नाम पर बाल-विवाह, अनमेल विवाह, मृत्यु-भोज, कन्या विक्रय, दहेज जैसी घिनौनी प्रथाएँ चल पड़ी थीं । राजा-महाराजाओं में सप्त कुव्यसनों का सेवन चरम सीमा पर था । इसे उच्चता और मान प्रतिष्ठा का प्रतीक बना दिया गया था । मुनिश्री ने इस परिस्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार किया । आभिजात्य वर्ग और निम्न वर्ग को युगपत उद्बोधन देकर, उन्हें एक साथ बिठाकर सप्त कुव्यसनों का त्याग कराया । धर्म के नाम पर बलि चढ़ने वाले हजारों पशुओं को अभयदान दिया । सामाजिक कुरीतियों में फँसे हजारों लोगों को उबारा। इस प्रकार आत्मशुद्धि और जीवनशुद्धि का युगान्तरकारी महान् कार्य मुनिश्री ने सम्पादित किया ।
(३) धर्म का समाजीकरण - धर्म, व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को रेखांकित करता है । धर्म की साधना व्यक्ति से आरम्भ होती है, पर उसका प्रभाव समाज पर परिलक्षित होता है । इस दृष्टि से धर्म के दो स्तर हैं— व्यक्ति स्तर पर क्षमा, आर्जव, मार्जव, त्याग, तप, अहिंसा, अपरिग्रह, आदि की आराधना करते हुए सामाजिक स्तर पर ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, संघधर्म को परिपुष्ट और बलिष्ठ बनाया जाता है । सच पूछा जाए तो ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, और राष्ट्र-धर्म की सम्यक् परिपालना करने पर ही श्रुत और चारित्र धर्म की आराधना संभव हो पाती है । इस बिन्दु पर धर्म समाज के साथ जुड़ता दिखाई देता है । पर कुछ विचारकों ने धर्म को एकान्त निवृत्तिमूलक मानकर उसे सामाजिकता से अलग कर दिया । मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने इस अन्तर्विरोध
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