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| श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २५२ :
उदारभावो यतकायवाङमना निरीहतां स्वावपुषा प्रकाशयन् । जगद्विरागण सदा विराजते दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ औदार्य युत मन वचन काया तन प्रकाश निरीहता । था जग विरति से सर्वदा श्री चौथमल मुनि सोहता ॥२७।। जगत्प्रसिद्धा विविधाशयाजनाः समागता: श्रावक श्राविकादयः । मनोरथान् पल्लवितान् प्रकुर्वते दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ थे श्राविका श्रावक अनेकों विविध फल के आश में । करते मनोरथ सफल आ जन चौथमल के पास में ॥२८॥ मनोरथं कल्पतरुयथाथिनां दुदोह भक्यागत शुद्धचेतसाम् । कोतवादाश्रयिणामकोतिदो दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ॥ कल्पतरु सम भक्ति युत आगत जनों की कामना । पूरण किये श्री चौथमल पर था जिन्हें सद्भावना ॥२६॥ वचांसि तस्यां स्वगुरोः सभासदः विशिष्ट वक्तृत्वकलागुरोर्वचः । निशम्य नेमस्तम नन्यमानसा विवाकरं चौथमलं मनीश्वरम ॥ वैशिष्ट्य युत उनके वचन सुन के सभासद प्रेम से । करते नमन थे कलागुरु मुनि चौथमल को नेम से ॥३०॥ कुमार्गगान् भिन्नमति न्न्यवेदय जिनेन्द्र सिद्धान्त व चोमिरोहिते। जिनेन्द्रवार्ताधयिणो व्यधापय दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः॥ स्मृति हीन कुत्सित पथ प्रवृत्त जिनेन्द्र दर्शित मार्ग में । सिद्धान्त वचनों से मुनीश्वर आनते सन्मार्ग में ॥३१॥ विहारकालेकमनीयमाननं व्यलोकयन् भव्यजना हतावयम् । इत्येवमचः पथिदूरभागते दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ भव्य जन थे देखते कमनीय मुख मुनिराज के। थे लोग पछताते परस्पर चौथमल पथ साज के ॥३२॥ समाधिकाले निहितात्मवृत्तिमान विभातिवाचस्पतिवत् समास्थितः। इमं वदन्तीह जनाः परस्परं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ गुरु सम सभा में शोभते थे योगयुत निज वृत्त थे। यों बोलते जन थे परस्पर चौथमल के कीति थे ।।३३।। उदीयमाने दिवि भास्करं जनो गुरूपदार्थान् कुरुते समक्षम् । अणस्वभावानपि तानवेदयहिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ गुरु वस्तु को जन देखते रवि जब उदित हो गगन में । पर सूक्ष्म को भी थे दिखाते चौथमल निज कथन में ॥३४॥ महाजना वैश्य कुलोद्भवा जनाः स्वकर्म बन्धस्य क्षयाय सन्ततम् । ने मुःप्रभाते विधिवद् व्रतेस्थिता दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ निज कर्म बन्ध क्षयार्थ सन्त वैश्य कूलभवभक्ति से । थे दिवाकर को सतत करते नमन अनुरक्ति से ॥३५॥
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