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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २२८ :
भाव प्रणति
पूजा व्यक्ति की नहीं होती, व्यक्तित्व की होती है । आकर्षण शब्दों में नहीं, उनके पीछे त्याग में होता है । दुनियां फूल नहीं, मकरन्द चाहती है । व्यक्तित्व के बल पर ही व्यक्ति विश्ववंद्य बनता है किन्तु व्यक्तित्व निखार के लिए अपेक्षित है— पुरुषार्थ, सहिष्णुता, आत्मानुशासन, वात्सल्य एवं उज्ज्वल चरित्र जैसे महान् गुणों की। इस प्रकार की श्रेष्ठ विशेषताओं को प्राप्त कर सामान्य मानव भी अलौकिक व्यक्तित्व सम्पन्न महामानव बन जाता है ।
★ श्री अमरचन्द लोढा, पाली ( राजस्थान )
जब मैंने श्री जैन दिवाकरजी महाराज के व्यक्तित्व पर दृष्टिपात किया तो पाया कि वे लौकिक युग में-- अलौकिक व्यक्तित्व के धनी महामानव थे। पूज्यश्री का विराट् व्यक्तित्व ज्ञान, दर्शन और चारित्र की पावन त्रिपथगा से अभिस्नात था । आपका अनन्त प्रवाही व्यक्तित्व अपने आप में एक अपूर्व उपलब्धि थी ।
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पूज्य श्री बड़े प्रभावशाली और पुण्यवान् सन्त थे । गेहुंआ वर्ण, लम्बा कद, गठा हुआ शरीर, प्रशस्त ललाट और गोल-गोल चमकती वात्सल्य भरी आँखें, यह था उनका प्रभावशाली बाह्य व्यक्तित्व | आपका व्यक्तित्व विविधताओं का पुञ्ज था। आप में जहाँ गुरुत्व की शासना थी वहाँ साधक की मृदुता भी थी। आप कवित्व की रस- लहरी में निमग्न रहते थे। आप जहाँ जन-जन को आकृष्ट करने वाले वाग्मी थे वहाँ एकान्तवासी मौन भी थे। आपके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से समाज को नया आलोक मिला । आपके अलौकिक व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि आप बड़ेबड़े राणा, राजा-महाराजा, जागीरदार, दार्शनिक, साहित्यकार, उच्चाधिकारी व शिक्षा - शास्त्रियों के साथ वार्तालाप करने में जितना आनन्द लेते थे उतना ही आनन्द गरीब, अशिक्षित जनता, हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई के साथ वार्तालाप में लेते थे । यही कारण था कि आपके प्रवचनों की आवाज मजदूर की झोंपड़ी से लेकर राजा-महाराजा के महलों तक पहुंची थी।
पूज्यश्री का चिन्तन संकीर्ण साम्प्रदायिक भावनाओं से बहुत दूर था । समन्वय आपके जीवन का मूल मन्त्र था । आपने इस मन्त्र को न केवल विचारों तक सीमित रखा, अपितु जीवन के हर व्यवहार में चरितार्थ भी किया था । आपके प्रवचनों में रामायण, बाइबिल और कुरान की आयतें सुना सुनाकर जैन आगमों द्वारा समन्वय कर हजारों-लाखों लोगों को मन्त्र मुग्ध कर देते थे इसी का सुपरिणाम है कि जैन ही नहीं, अपितु अन्य धर्मावलम्बी भी आपको मानवता का मसीहा मानकर समादर करते थे । इन्हीं उदात्त भावनाओं के फलस्वरूप आपको 'जैन दिवाकर' की उपाधि से विभूषित किया।
आपश्री ने अलौकिक दिव्य प्रज्ञा के अनेक महत्त्वपूर्ण कल्पनाओं को मूर्तरूप दिया था। कई ज्ञान-साधना के संस्थान स्थापित किये थे । आपकी स्पष्टवादिता और उसमें झलकते चारित्र के तेजपुञ्ज के सम्मुख प्रत्येक व्यक्ति नतमस्तक हो जाता था । आपकी पुण्यवत्ता अद्वितीय थी । जो कार्य सैकड़ों व्यक्तियों के परिश्रम और धन से भी सम्भव नहीं होता, वह उनकी पुण्यवत्ता से स्वयं ही हो जाया करता था । राजस्थान के विभिन्न रियासतों के नरेश और बड़े-बड़े जागीरदार आपके वर्चस्वी व्यक्तित्व और प्रवचनों से अत्यन्त प्रभावित हुये और उन्होंने अपनी-अपनी रियासतों एवं
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