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________________ :२२१ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम । श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ जीवित अनेकान्त जो दीपक घर में ही प्रकाश करता है उसको अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का महत्त्व अधिक है। पं० नाथूलाल शास्त्री जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पंडित मुनिश्री चौथमलजी महाराज के प्रभावशाली प्रवचनों के श्रवण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है । अभी उन्हें दिवंगत हुए २८ वर्ष हुए हैं। अपनी सुमधुर व्याख्यान-शैली द्वारा इस विशाल भारत में लगभग ५२ वर्षों तक धर्म का प्रचार-प्रसार उन्होंने किया है। उनकी विद्वत्ता, व्यक्तित्व एवं उपदेश से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में होने वाली पशु-पक्षियों, जलचरों आदि के बलिदान, शिकार आदि हिंसा-कार्यों को स्वयं व प्रजा द्वारा बन्द कराने की प्रतिज्ञा व हुक्मनामे निकाले गये । जोकि इसी ग्रन्थ में पृष्ठ १३३ से १७२ तक दिये गये हैं। कहा जाता है कि सभी तरह के सांसारिक सम्बन्धों का परित्याग कर केवल आत्मकल्याण के लिए ही मुनि दीक्षा ली जाती है। पर इस उद्देश्य को मैं एकान्तिक मानता हूँ। जो दीपक घर में ही रहकर प्रकाश करता है उसकी अपेक्षा खुले आकाश में प्रज्वलित स्व-पर-प्रकाशक दीपक का अधिक महत्त्व है। साधुगण का भी स्वकल्याण के साथ लोकहित सम्पादन करना मणि-कांचन संयोग के समान है। महाराजश्री न केवल प्रभावक वक्ता ही थे, वरन् प्रखर चिन्तक एवं कुशल लेखक भी थे। उनकी अनेकान्त आदि विषयों पर विद्वत्तापूर्ण रचनाएँ पढ़ने से उनके उच्च शास्त्रज्ञान, अनेकान्त तत्त्व के मनन एवं परिशीलन का परिचय मिलता है। आज से ३६ वर्ष पूर्व की उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ अन्य दर्शनों की समालोचना के साथ अनेकान्त, नयवाद और सप्तभंगीवाद का विशद विवेचन है । विश्व-शान्ति के लिए 'जीओ और जीने दो' इस सिद्धान्त के अनुकरण की आवश्यकता है, उसी प्रकार दार्शनिक जगत की शान्ति के लिए 'मैं सही और दूसरे भी सही' का अनुसरण अनेकान्त की खूबी है। हमारा कर्तव्य है कि हम दूसरे के विचारों को समझें, उसकी अपेक्षा को सोचें और तब अमुक नय से उसे संगतियुक्त स्वीकार कर लें। इस अनेकान्त को जीवन में उतारकर एक बौद्ध विद्वान् के शब्दों में 'घुमक्कड़ भगवान् महावीर' के समान महाराजश्री ने भी घुमक्कड़ और कष्टसहिष्णु बनते हुए धर्मोपदेश के साथ ही पिछड़े वर्ग में सहस्रों पुरुषों एवं महिलाओं को मद्य और मांस आदि दुर्व्यसनों का त्याग कराया तथा वेश्याओं को उनके व्यवसाय का परित्याग कराकर सदाचारपूर्ण जीवन की ओर प्रेरित किया । आपने सामाजिक कुरीतियों में भी सुधार कराकर समाज को आर्थिक कष्ट से मुक्ति दिलाई है। कोटा में तीनों जैन-सम्प्रदायों के साधओं का, जिनमें महाराजश्री भी सम्मिलित थे, एक साथ बैठकर प्रवचन देने की घटना अपनी विशिष्टता रखती है। वर्तमान में जैन संगठन का यह एक आदर्श उदाहरण है । इसी का अनुकरण उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्दजी के इन्दौर चातुर्मास के समय हमने प्रत्यक्ष देखा है। साधुपद की गरिमा सर्व प्रकार की दीवारों---सांप्रदायिक विचारों के परित्याग में ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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