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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
मानवता की सेवा में निरत : मुनिश्री चौथमलजी
* दुर्गाशंकर त्रिवेदी (कोटा)
उनका जीवन सामाजिक एकता, मैत्री, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, अहिंसात्मक आचरण और सहज वात्सल्य की विजय का अपूर्व शंखनाद था ।
: २१६ : श्रद्धा का अर्घ्यं भक्ति भरा प्रणाम
वे वाग्मिता, यानी सहज वक्तृत्व कला के अद्भुत धनी थे, उनकी गुरु- गम्भीर वाणी में एक विरल किस्म की अपरिमित चुम्बकीय ऊर्जा व्याप्त थी, जो चित्त को सहज ही बींध लेती थी । वे हिंसा, अशान्ति, वैर और अविश्वास की दुर्दम शक्तियों को पराजित करके 'एकला चलो रे' के मार्ग- दीप को संदीप्त कर चलने वाले युग-पुरुष थे ।
पतितों, शोषितों, दीन-दुःखियों, पीड़ितों और तरह-तरह के कष्टों से संत्रस्त जन-सामान्य की पीड़ा पूरित अश्र - विगलित आँखों के आंसू पोंछने को सन्नद्ध अहर्निश सेवारत सन्त थे ।
ये तथा ऐसे कितने ही प्रशस्ति परक वाक्यों की पंक्तियों के समूह जिस किसी आदर्श जैन सन्त के लिए लिखे जा सकते हैं; उनमें जैन दिवाकर सन्त श्रीचौथमलजी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है | समाज-सेवा को समर्पित ऐसा सत्यान्वेषी सन्त इस युग में दुर्लभ ही है । उन्होंने अपने अप्रतिम व्यक्तित्व के माध्यम से अज्ञानियों, अशिक्षितों, भूले-भटके संशयग्रस्त मनुष्यों के मन-मन्दिर में साधना और सच्चरित्रता का अखण्ड दीपक प्रज्वलित किया । विश्व मंगल के लिए तिल-तिल समर्पित इस महामानव का व्यापक प्रभाव आज भी उसी तरह से कायम है । श्रद्धा का सैलाब जनजीवन में उसी तरह उफनता नजर आता है उनके नाम पर !
कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, रविवार संवत् १९३४ को मध्यप्रदेश के नीमच नगर में जन्म लेकर श्री चौथमलजी महाराज ने १८ वर्ष की वय में ही बोलिया ( मन्दसौर, मध्य प्रदेश) में श्री हीरालालजी महाराज से दीक्षा लेकर 'वसुधा; मेरा कुटुम्ब' की घोषणा की थी। जिसे आजीवन निभाकर आपने मानवोद्धार का मार्ग जन-जीवन में प्रशस्त किया । अपने जीवन के ५५ चातुर्मासों में आपने अपनी सहज बोधगम्य धाराप्रवाही अन्दर तक छूकर उद्वेलित करने वाली गुरु-गम्भीर वाणी द्वारा छोटे-बड़े, राव-रंक सबको अभिषिक्त किया । विभिन्न धर्मावलम्बियों के प्रति आपका सहज स्नेह इसी भावना का पोषक रहा है ।
आपकी वक्तृत्व-शैली श्रोताओं को अपनी ओर खींचे बिना नहीं रहती थी । वह व्यक्तित्व को अन्दर से झकझोर कर रख दिया करती थी । श्रोता सोचने, करने की ऊहापोह में उलझकर कुछ कर गुजरने का साहस जुटा लिया करता था ।
प्रसंग वि० सं० १९७२ का है। मुनिश्री पालनपुर में चातुर्मास कर रहे थे । आपके मार्मिक प्रवचनों की चर्चा नवाब तक पहुँची तो वह भी तारीफ को कसौटी पर कसने प्रवचन सुनने आया; और अभिरुचि जागृत हो उठने से बराबर आता ही रहा । चातुर्मास की समाप्ति पर एक दिन नबाब साहब एक बेशकीमती शाल महाराजश्री के चरणों में अर्पित करके बोले – “बराये करम, मेरा यह अदना-सा तोहफा कुबूल फर्मायें, मशकूर हूँगा ।"
चौथमलजी महाराज यह देखकर नवाब साहब से स्नेहपूर्वक बोले- 'नवाब साहब, हम जैन
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