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________________ :२०६ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | सम्पूर्ण मानवता के दिवाकर * मेवाड़भूषण मुनि श्री प्रतापमलजी "दिवाकर' शब्द सूर्य, का प्रतीक रहा है। फलस्वरूप विराट् विश्व के विस्तृत अंचल में व्याप्त अन्धकार की इति करके जो यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रकाश से परिपूर्ण हजार किरणों को बिखेरता है, उसे दिवाकर नाम से पुकारा जाता है। दिवाकर की तरह अनेक शिष्यों से सुशोभित एक सन्त-शिरोमणि भी कुछ वर्षों पहले मालवा, मेवाड़, मारवाड़ की पवित्र भूमि पर विचर रहे थे। जिनकी पीयूषवर्षी वाणी में जादू, बोली में एक अनोखा आकर्षण, चमकते चेहरे पर मधुर-मुस्कान, विशाल अक्षिकाएँ, सुलक्षणी भुजाएँ, गौर वर्ण एवं मनमोहक गज-गति चाल जिनका बाह्य वैभव था। जिनकी ज्ञान-ध्यान-साधना में चुम्बकीय आकर्षण था, सहज में हजारों नर-नारी उपदेशामत का पानकर अपने आपको सौभाग्यशाली मानते थे। जिनके अहिंसामय उपदेशों का प्रभाव राजमहलों से लेकर एक टूटी-फूटी कुटिया तक एवं राजा से रंक पर्यंत और साहूकार से चोर पर्यन्त व्याप्त था। जिन्होंने सैकड़ों-हजारों मानवों को सच्ची मानवता का पाठ पढाया, भूले-भटके राहगीरों को सही दिशा-दर्शन प्रदान किया, जन-जीवन में जिन-धर्म का स्वर बुलंद किया, छिन्न-भिन्न सामाजिक वातावरण में स्नेह-संगठन का उद्घोष फूंका और जैन समाज में नई स्फूर्ति, नई चेतना जागृत की। जिनके द्वारा स्थानकवासी जैन समाज को ही नहीं, अपितु अखिल जैन समाज को ज्ञान-प्रकाश, नुतन साहित्य एवं प्रेममैत्री की प्रबल प्रेरणा प्रदान की है। वे थे एकता के संस्थापक जैन जगत् के वल्लभ स्व० जैन दिवाकर गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज । _ इस जन्म शताब्दी वर्ष समारोह के पुनीत क्षणों में मैं भी अपनी ओर से उस महामनस्वी के चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित करता है। दिवाकर-एक प्राधार ४. निर्मलकुमार लोढ़ा (निम्बाहेड़ा) एक मुसाफिर बीहड़ जंगलों में मार्ग भूलकर, थका-मांदा, भूख से व्याकुल किसी सहायता की अपेक्षा से चला जा रहा है, अचानक मीलों दूर उस निर्जन वन में एक टिमटिमाते दीपक की रोशनी उसमें स्फूर्ति का संचार कर देती है। वह अपनी सारी कठिनाइयों को भूलकर उस नवीन सहारे की तरफ तीव्रगती से अग्रसित होने लगता है। ठीक उसी प्रकार हमारे देश, समाज, धर्म और मानवता पर संकट के बादल मंडराते रहे हैं और रहते हैं। इन संकटों को दूर करने हेतु समय-समय पर कुछ ऐसी पवित्र आत्माएँ भी हमारे बीच उपस्थित होती रहती हैं, जो हमारा जीवन का मार्ग-दर्शन करती हैं । सौभाग्य से इन्हीं महापुरुषों में लोकनायक जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज भी इस धरती पर अवतरित हुए और अपने दिव्य आलोक से जन-मानस के जीवन को नवीन दिशा प्रदान की । अन्धकार में भटकती हुई जनता को प्रकाश-पथ की ओर प्रस्फुटित किया । जैन दिवाकरजी महाराज को जन्मे सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं, परन्तु उनकी स्मृतियाँ आज भी जन-मानस के मन-मस्तिष्क में इतनी तरो-ताजा हैं कि मानो वह आज भी हमारे बीच प्रत्यक्ष विद्यमान हों। उन्होंने एकता के लिए जो पहल एवं कदम समाज हेतु उठाये थे, वे सदैव चिरस्मरणीय रहेंगे। सामाजिक ऐक्यता-सर्वधर्मसमभाव की हादिक विशालता को कभी भुलाया नहीं जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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