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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।।
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २०२:
प्रणाम, एक सूरज को
डॉ नेमीचन्द जैन
(संपादक-तीर्थकर) मनि श्री चौथमलजी को श्रद्धांजलि अर्पित करना सचमच एक बहुत कठिन कार्य है । वह इसलिए कि उनका सारा जीवन श्रमण-संस्कृति की उत्कृष्टताओं पर तिल-तिल न्योछावर था, वे उसके जीवन्त-ज्वलन्त प्रतिनिधि थे, उनका सारा जीवन उन लक्ष्यों की उपलब्धि पर समर्पित था जिनके लिए भगवान महावीर ने बारह वर्षों तक दुर्द्धर तप किया, और जिन्हें सदियों तक जैनाचार्यों ने अपनी कथनी-करनी की निर्मलता द्वारा एक उदाहरणीय उज्ज्वलता के साथ प्रकट किया।
मुनिश्री असल में व्यक्ति-क्रान्ति के महान् प्रवर्तक थे, उन्होंने अहसास किया था कि समाज में व्यक्ति के जीवन में कई शिथिलताओं, दुर्बलताओं तथा विकृतियों ने द्वार खोल लिए हैं, और दुर्गन्धित नालियों द्वारा उसके जीवन में कई अस्वच्छताएं दाखिल हो गयी है, अत: उन्होंने सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया कि इन दरवाजों को मजबूती से बन्द कर दिया, तथा नैतिकता और धार्मिकता के असंख्य उज्ज्वल रोशनदान वहाँ खोल दिये। इस तरह वे जहाँ भी गये, वहीं उन्होंने व्यक्ति को ऊंचा उठाने का काम किया। एक बड़ी बात जो मुनि श्री चौथमलजी के जीवन से जुड़ी हुई है, वह यह कि उन्होंने जनमात्र को पहले आदमी माना, और माना कि आदमी फिर वह किसी भी कौम का हो, आदमी है; और फिर आदमी होने के बाद जरूरी नहीं है कि वह जैन हो (जैन तो वह होगा ही) चूंकि उन्होंने इस बात का लगातार अनुभव किया कि जो नामधारी जैन हैं उनमें से बहुत सारे आदमी नहीं हैं।
क्योंकि वे इस बात को बराबर महसूसते रहे कि भगवान् महावीर ने जाति और कुल आधार पर किसी आदमी को छोटा-बड़ा नहीं माना, उनकी तो एक ही कसोटी थी-कर्म; कर्मणा यदि कोई जैन है तो ही वे उसे जैन मानने को तैयार थे, जन्म से जैन और कर्म से दानव व्यक्ति को उन्होंने जैन मानने से इनकार किया। यह उनकी न केवल श्रमण-संस्कृति को वरन् सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को एक अपूर्व देन है, इसीलिए वे भील-भिलालों के पास गये, पिछड़े और पतित लोगों को उन्होंने गले लगाया, उनके दुःख-दरद, हीर-पीर को जाना-समझा, उन्हें अपनी प्रीतिभरी आत्मीयता का पारस-स्पर्श दिया, और इस तरह एक नये आदमी को जन्मा। हो सकता है कई लोग जो गृहस्थ, या साधु हैं, उनके इस महान् कृतित्व को चमत्कार मानें, किन्तु मुनिश्री चौथमलजी का सबसे बड़ा चमत्कार एक ही था और वह यह कि उन्होंने अपने युग के उन बहुत से मनुष्यों को, जो पशु की बर्बर भूमिका में जीने लगे थे, याद दिलाया कि वे पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, और उन्हें उसी शैली-सलीके से अपना जीवन जीना चाहिये ।
मनुष्य को मनुष्य की भूमिका से स्खलित होने पर जो लोग उसे पुनः मनुष्य की भूमिका में वापस ले आते हैं, सन्त कहलाते हैं।
मनिश्री केवल जैन मुनि नहीं थे, मनजों में महामनुज थे । वे त्याग और समर्पण के प्रतीक थे। निष्कामता और निश्छलता के प्रतीक थे । निर्लोभ और निर्वेर, अप्रमत्तता और साहस, निर्भीकता और अविचलता की जीती-जागती मूर्ति थे । क्या यह सच नहीं है कि ऐसा मनस्वी सन्त पुरुष हजारों-हजार वर्षों में कभी-कभार कोई एक होता है, और बड़े भाग्योदय से होता है।
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