________________
श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ :
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २००:
भावांजली
र रंगमुनिजी महाराज आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व एक सदाबहार फूल भारत के उद्यान में खिला था। जिसने झोपडी से लेकर राजमहल तक अहिंसा की खुशबू फैलाई थी । मद्य, मांस, जुआ , शिकार आदि दुर्व्यसनों में लिप्त मानव संसार को वीतराग वाणी का मधुर-मकरंद-पान कराकर सन्मार्ग बताया तथा अज्ञानियों को सम्यक् पथ में लगा जीवन उद्धार किया वह मानव ही नहीं महामानव था जिसका व्यक्तित्व विराट् था, जिसका जीवन गंगा की धारा से भी महा पावन था। जिसका मनोबल मेरुपर्वत-सा अचल एवं अडोल था। जिसकी वाणी में अमृत का अक्षय स्रोत प्रवाहित होता था। जिसकी दृष्टि में राजा, सेठ, साहूकार, अमीर, गरीब सभी एक समान थे। जिनका तेज सूर्य-सा प्रकाशमान था । चन्द्र जैसी जीवन में सौम्यता थी । वह जन-जन का हृदय दुलारा, संघ ऐक्यता का अग्रदूत, जगद्वल्लभ, जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पण्डित रत्न श्री चौथमलजी महाराज साहब के नाम से ख्याति प्राप्त राष्ट्र-सन्त था।
जिसने इठलाती युवावस्था में सांसारिक विषय-भोगों पर विजय प्राप्त कर, सच्ची शूरवीरता का परिचय दिया। हजारों मूक प्राणी, जो धर्म के नाम पर अज्ञानग्रस्त व्यक्तियों के द्वारा बलि चढ़ाये जाते थे, उनकी करुण चित्कार-भरी वाणी को श्रवण कर आपने हजारों व्यक्तियों को ज्ञानदान देकर हजारों प्राणियों के प्राण बचाये । वह अमरता एवं अहिंसा का पुजारी था । निर्ग्रन्थ संस्कृति का सन्देशवाहक था । जैन समाज का उन्नायक था । एकता का प्रबल हिमायती था।
__ आप निरभिमानी, संगठन प्रेमी थे, क्षुद्र साम्प्रदायिक दायरे से बाहर थे। आपके विचार बहुत उन्नत थे। आपकी कथनी एवं करणी में तनिक भी अन्तर नहीं था। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आपने कोटा के अन्तिम वर्षावास काल में श्वेताम्बर, दिगम्बर, मुनि आचार्यों के साथ एक ही स्टेज पर आदर्श त्रिवेणी संगम कर दिखाया, साथ ही एक ही मंच पर व्याख्यान दिया। यह आपकी महानता का द्योतक है।
आपका जीवन गागर में सागर था । आपके शताब्दि वर्ष की मंगलमय शुभ बेला में आपके परमपावन चरण सरोजों में मैं अपनी श्रद्धांजलि चढ़ाकर अपना जीवन गौरवान्वित मानता हूँ ! आपके जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर मैं भी अपना जीवन धन्य बना सकं यही मंगलमय शुभकामना करता हूं। एक अद्भुत पुरुष
पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल श्री जैन दिवाकरजी महाराज का वियोग सारी जैन जाति के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी पूर्ति के लिए न जाने कितने युगों को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, फिर भी कौन जाने क्षति पूर्ति होगी भी या नहीं?
बारहवीं शताब्दी में आचार्य श्री हेमचन्द्रजी हए। उनके करीब चार सौ वर्ष बाद श्रीहीरविजय सूरि हुए और इतने ही समय के पश्चात् इस बीसवीं शताब्दी में जैन दिवाकरजी प्रगट हुए थे, जिन्होंने जैनधर्म की जैनेतर संसार में बड़ी प्रभावना की। वे पुण्यशाली महात्मा थे। उनका सारा जीवन यशोमय रहा, मगर अपने अन्तिम समय में तो वे अपने यश पर शानदार कलश चढ़ा गये हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org