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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
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स्मृतियों के स्वर १३२
युग का एक महान् चमत्कार
* बापूलालजी बोथरा, रतलाम
जिस महान विभूति का जन्म शताब्दि वर्ष सारे देश में मनाया जा रहा है, वह केवल जैन समाज का ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारत का एक असाधारण संतपुरुष था भारत की जनता के नैतिक जीवन को ऊंचा उठाने और अहिंसा के प्रचार-प्रसार की दिशा में श्री जैन दिवाकरजी महा राज ने जो योगदान किया है, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने अपने अनूठे व्यक्तित्व और अपनी असाधारण वक्तृता से बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को प्रभावित किया और यथाशक्ति जीवदया तथा अहिंसा का व्यापक प्रसार किया। सैकड़ों राजाओं और जागीरदारों ने जीव हिंसा निषेध के पट्ट लिख कर उन्हें समर्पित किये। यह उस युग का एक महान् चमत्कार था । वस्तुतः वे मेरे परम आराध्य गुरु हैं ।
जब मैं ६ वर्ष का ही था, तब उनसे मैंने गुरु- आम्नाय (सम्यक्त्व) ली थी। एक लम्बी अवधि के बाद जोधपुर चातुर्मास में मैं उनके दर्शनार्थ गया था तब मैं बीस वर्ष का तरुण था। पूरे ११ वर्षों के बाद मैंने यह दर्शन लाभ किया था। गुरुदेव प्रवचन दे रहे थे। दस हजार से अधिक लोग एकटक, मन्त्र-मुग्ध उन्हें सुन रहे थे । व्याख्यान के बाद मैं भी उनके साथ-साथ चलने लगा | मार्ग में उन्होंने मुझसे पूछा "बापू, बने याद है, संवत् १९८५ में गुरु -आम्नाय ली थी ?" इस आत्मीय स्वर ने मुझे नवशिस हिला दिया। ११ वर्ष के अन्तराल के बाद भी वे मुझे नहीं भूले थे। सैकड़ों लोगों के बीच चलते हुए उन्होंने मुझसे यह प्रश्न किया था। इस एक ही बात से मैं इतना अभिभूत हुआ कि फिर प्रतिवर्ष उनकी सेवा में उपस्थित होने लगा ।
वि० सं० १९९६ से ही मेरा प्रयास रहा कि श्री जैन दिवाकरजी का एक चातुर्मास रतलाम कराऊँ। अपने प्रयत्न में मुझे सफलता मिली संवत् २००० में उनका यह चातुर्मास संघ की एकता की दृष्टि से चिरस्मरणीय रहा। रतलाम के बाद संवत् २००७ में उनका चातुर्मास कोटा में हुआ। जैन समाज की भावात्मक एकता के संदर्भ में यह चातुर्मास अद्वितीय रहा। इसके बाद ही वे उदरव्याधि से पीड़ित हुए १४ दिन उन्हें यह पीड़ा रही मैं लगभग १२ दिन उनकी सेवा में अन्तिम क्षणों तक रहा। मुझे उनकी अन्तिम बन्दना का सौभाग्य मिला था।
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