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॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
स्मतियों के स्वर : ११६ :
शवयात्रा निकल रही है, बड़े धूमधाम से। हजारों आदमी साथ हैं, गांव बाहर से वापस गाँव की ओर चली है, वहाँ से सेठ केसरसिंहजी की बगीची में दाह-संस्कार होगा।"
कोटा ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहा था, विचारों की उथल-पुथल बढ़ रही थी। गरुदेव के दर्शन तो अब स्वप्न रह गये । कदम-कदम पर उस दिव्य आत्मा की छबि आँखों में घूम रही थी, मन श्रद्धा से नत हो रहा था। लगभग आधा घंटा दिन रहा होगा कि हम नयापुरा बाबू गणेशलालजी के नन्द भवन में पहुँच गये। यहीं पर गुरुदेव का स्वर्गवास हुआ था। कुछ लोग दाह-संस्कार देखकर लौट रहे थे। उनके चेहरों पर छाई उदासी और व्याकुलता देखकर सहसा दिल भारी हो उठता था, वेदना की कसक और तीखी हो जाती थी। सहमे-सहमे कदमों से हम नन्द भवन की ऊपरी मंजिल पर पहुंचे। वहाँ उपाध्याय प्यारचन्दजी महाराज आदि श्रमण समुदाय उदास-स बैठा था। श्री प्यारचन्दजी महाराज की आँखों से तो अब तक भी गंगा-यमुना प्रवाहित हो रही थी। गुरु का वियोग शिष्य के लिए सर्वाधिक असह्य होता है। गुरु की सन्निधि में शिष्य को जो आनन्द, उल्लास और आध्यात्मिक पोषण मिलता है, वह अकथनीय है। गुरु-वियोग की गहन पीड़ा शिष्य की आँखों में घनीभूत रहती है, उसे कोई शिष्य ही पढ़ सकता है। उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज की मानसिक वेदना, देखकर भगवान महावीर के परिनिर्वाण पर हुई गणधर गौतम की मनोवेदना की स्मृति होने लगी। प्राचीन आचार्यों ने भगवान महावीर और गणधर गौतम के अपूर्व स्नेह-सम्बन्धों का मार्मिक वर्णन किया है, जिसे पढ़कर आज भी हृदय रोमांचित हो उठता है और महावीर निर्वाण के बाद की गौतम-विलाप की कविताएँ मन को गद्गद् कर डालती हैं । उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज की भी कुछ वैसी ही स्थिति हो रही थी। गुरु का असीम वात्सल्य और शिष्य का सर्वात्म समर्पण भाव यह सम्बन्ध जिसने देखा, वही उनकी पीड़ा की मार्मिकता को समझ सकता था। हम जब वहाँ पहुंचे और वातावरण में तैरती गम्भीरता, उदासीनता से अभिभूत हुए तो आँखें स्वतः ही छलछला उठी। गुरुदेव के अन्तिम दर्शनों की मन की अतृप्त प्यास बार-बार कसक बनकर मन को कचोट रही थी। पर खैर, इतना लम्बा विहार कर कम से कम स्वर्गवास के दिन वहाँ पहँच गये।
तपस्वी मोहनलाल जी मुनि ने भी अत्यन्त निष्ठापूर्ण तन्मय होकर गुरुदेव की सेवा की थी। जिसने भी उनकी सेवा-भावना देखी वह प्रशंसा किये बिना नहीं रहा, वे भी आज उदास और वेदना पीड़ित थे। सभी सन्तों व आने वाले भक्तों की आँखों से अश्र धार बह रही थी। यह देखकर मुंह से निकल पड़ता था
दिवाकर उस पार है, छाया अन्धकार है ।
सावन जलधर की तरह, बह रही अश्रु-धार है ॥ प्रातः हुआ, सूर्य की किरणों ने अन्धकार की सघनता को तोड़ा, समय के विधान ने पीड़ा की सघनता भी कुछ कम की। दूसरे दिन मुनिवरों के साथ वार्तालाप हुआ तो मालूम हुआ कि गुरुदेव श्री ने अन्तिम समय में पूछा था-"केवल आ गया क्या ?"
गुरुदेव ने अन्तिम समय में मुझे याद किया यह जानकर हृदय भर आया। उनकी असीम करुणा और अपार कृपा का स्मरण होने पर आज भी मन-विभोर हो उठता है।
दोपहर को आचार्य सूर्यसागरजी महाराज नन्द भवन में पधारे। उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी
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