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: ८७ : उदय : धर्म-दिवाकर का
श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ ।
आपके इन वचनों ने निर्णय ही कर दिया । महावीर जयन्ती सम्मिलित रूप से ही मनाई गई।
इसी चातुर्मास में आपकी प्रेरणा से पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज सम्प्रदाय के हितैषी मंडल की स्थापना 'समाज हितैषी श्रावक मण्डल' के नाम से हुई।
सच्चा वशीकरण मन्दसौर चातुर्मास की ही एक घटना है। जैन दिवाकरजी महाराज के प्रवचन होते थे। प्रवचनों में श्रोताओं की अपार भीड़ एकत्र होती थी। एक दिन एक वृद्धा भीड़ को चीरती हुई आई और कहने लगी
"गुरुजी ! आपकी बात तो सब लोग मान लेते हैं, मेरी कोई नहीं मानता । सभी मुझे चिढ़ाते हैं। मेरी बात तक नहीं सुनते । अपना वशीकरण मन्त्र मुझे भी दीजिए।"
महाराजश्री ने कुछ क्षण सोचा और गम्भीर स्वर में बोले
"माताजी ! सच्चा वशीकरण है मधुर वचन, कठोर शब्दों का त्याग | आप सदा मधुर वचन बोलिए । चिढ़ाने वालों से या तो मौन धारण कर लीजिए या उनसे भी मीठे शब्दों में बोलिए। कुछ ही दिनों में सब लोग आपकी बात सनने लगेंगे, मानने लगेंगे।"
वृद्धा उनकी बात मान गई। दो ही महीने बाद आकर बोली
"महाराज साहब ! आपका मन्त्र अचूक है। इसका प्रभाव अमोघ है । मैं सुखी हो गई। मुझे सच्चा वशीकरण मिल गया।"
"अच्छी बात है, अब इसका जीवन भर प्रयोग करना, कभी मत छोड़ना । सुख के साथ-साथ तुम्हें शांति भी मिलेगी।"
वृद्धा ने सिर झुकाकर सहमति व्यक्त की।
महाराजश्री की यह प्रेरणा 'बहयं मा य आलवें', 'मियं भासेज्ज पन्नवं', 'न य ओहरिणी वए' आदि शास्त्र वचनों का अनुभवमूलक सन्देश थी।
अंगुष्ठोदक का चमत्कार मन्दसौर के जीयागंज मोहल्ले में जैन दिवाकरजी महाराज अपने प्रवचनों से दयाधर्म की गंगा बहा रहे थे। एक दिन मनासा निवासी श्री भंवरलाल जी रूपावत अपने दुःसाध्य रोग से पीड़ित पुत्र शांतिलाल को लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुए।
शांतिलाल जब चार मास का ही था तभी से वह उदरशूल से पीड़ित था। दर्द इतना तीव्र था कि वह तड़पता रहता था। चार मास के शिशु की पीड़ा से माता-पिता दोनों की नींद हराम हो गई थी। रूपावतजी ने सभी तरह के उपचार करा लिए थे। माता-मसानी, पीर-फकीर, पंडित-मौलवी, वैद्य-हकीम, डाक्टर, तांत्रिक-मांत्रिक सभी विफल हो गए थे। माता-पिता अब निरुपाय हो गए थे। वे अपने पुत्र के जीवन से निराश हो चुके थे। एक दिन रूपावतजी के किसी मित्र ने उन्हें सलाह दी-'रूपावतजी ! आप मन्दसौर जाकर जैन दिवाकरजी महाराज की शरण लें तो मुझे विश्वास है आपका बच्चा नीरोग हो जायगा।'
मित्र की सलाह मानकर रूपावतजी मन्दसौर पहुंचे। सतीवर्ग को शिशु की व्यथा कह सुनाई। करुण व्यथा सुनकर महासतीजी का हृदय करुणार्द्र हो उठा। उन्होंने उपाय बताया'एक गिलास में प्रासुक गरम जल लेकर आप महाराजश्री के दाहिने पाँव का अगंठा प्रक्षालित कर लीजिए। उस प्रक्षालित जल को शिशु को पिलाइये । शिशु नीरोग हो जायगा।'
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