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________________ गुणचन्द्रमुनि कौन हैं ? आचार्य वादिराज (ई० सन् १०२५) ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (२।१०३) में अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयकी कारिका १०२, १०३ की व्याख्या करते हुए 'अथवा' शब्दके साथ निम्न पद्य दिया है देवस्य शासनमतीवगम्भीरमेतत्तात्पर्यतः क इव बोद्धमतीव दक्षः। विद्वान्न चेत् स गुणचन्द्रमुनिर्न विद्यानन्दोऽनवद्यचरणः सदनन्तवीर्यः ।।१०४०।।। अर्थात् 'यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानद और सज्जन अनन्तवीर्य (रविभद्रशिष्य-सिद्धिविनिश्चय-टीकाकार एवं प्रमाणसंग्रह-भाष्यकार अनन्तवीर्य) ये तीन विद्वान देव (अकलङ्देव) के गम्भीर शासन-वाङ्मय) के तात्पर्यका व्याख्यान न करते तो उसे कौन समझने में समर्थ था।' ___ यहाँ वादिराजसूरिने विद्यानन्द और अनन्तवीर्यसे पहले जिन गुणचन्द्र मुनिका उल्लेख किया है वे कौन हैं और उन्होंने अकलङ्कदेवके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है ? आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (देवागमालङ्कार) में उनकी अष्टशतीका विशद व्याख्यान किया है और रविभद्र-शिष्य अनन्तवीर्यने उनके प्रमाणसंग्रहपर प्रमाणसंग्रहभाष्य तथा सिद्धिविनिश्चयपर विस्तृत टीका लिखी है, यह सभी विद्वान् जानते हैं। किन्तु गुणचन्द्रमुनिने उनके कौन-से ग्रन्थपर व्याख्या लिखी है, यह कोई भी विद्वान् नहीं जानता और न ऐसी उनकी कोई व्याख्या ही उपलब्ध है, न ही वह अनुपलब्धके रूपमें ही ज्ञात है। फिर भी वादिराजके इस स्पष्ट उल्लेखसे इतना जरूर ज्ञात होता है कि अकलङ्कके शासन (वाङ्मय) के व्याख्यातारूपमें उन्हें एक जुदा व्यक्ति अवश्य होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने अकलङ्कके लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रयालंकार नामकी टीका लिखी है, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है । ये प्रभाचन्द्र वादिराजके समकालीन अथवा कुछ उत्तरवर्ती हैं । इसलिए 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका उल्लेख उन्होंने किया हो, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता । अतः उक्त पदसे वादिराजको अपनेसे पूर्ववर्ती अकलंकका व्याख्याकार अभिप्रेत होना चाहिए, जो विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जैसे व्याख्याकारोंसे पूर्ववर्ती एवं प्रभावशाली भी हों। परन्तु अब तक उपलब्ध जैन साहित्यमें विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय अकलंकका अन्य कोई व्याख्याकार दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः स्वभावतः प्रश्न उठता है कि वादिराज द्वारा उल्लिखित गुणचन्द्र मुनि कौन हैं और वे कब हुए तथा उनकी रचनाएँ कौन-सी हैं ? यदि वस्तुतः 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे वादिराजको गृणचन्द्रमुनि नामके विद्वान्का उल्लेख करना अभीष्ट है, जो अकलंकके किसी ग्रन्थका प्रभावशाली व्याख्याकार रहा हो तो विद्वानोंको इसपर अवश्य विचार करना चाहिए तथा उनका अनुसंधान करके परिचय प्रस्तुत करना चाहिए। यहाँ ध्यातव्य है कि प्रसिद्ध जैन साहित्य अनुसन्धाता पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका विचार है कि 'गुण' शब्द प्रभाके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है और इसलिए 'गुणचन्द्र' पदसे आचार्य वादिराजके द्वारा उन्हीं प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें किया है और जिन्हें 'कृत्वा चन्द्रोदयं पदके द्वारा 'चन्द्र'के उदय (उत्पत्ति) का कर्ता अर्थात न्यायकुमुदचन्द्र नामक जैन न्यायग्रन्थका जो अकलंकदेवके लवीयस्त्रयकी टीका है, रचयिता बतलाया है। उनका मत है कि प्रमेयकमलमार्तण्डके कर्ता -३९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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