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'तर्हस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति कश्चित्, सोपि पापीयान् । तथा हि सद्भावेतराम्यामनभिलापे वस्तुनः केवलं मूकत्वं जगतः स्यात्, विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात् । न हि सर्वात्मनानभिलाप्यस्वभावं बुद्धिरध्यवस्यति । न चानध्यवसेयं प्रमितं नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीत कल्पत्वात् । मुच्छचैतन्यवदिति ।"अष्टस० पृ० १२९ ।
इससे यह साफ है कि संजयकी सदोष चतुभंगी और उसके दर्शनको जैनदर्शनने नहीं अपनाया। उसके अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्त-सिद्धान्त, सप्तभंगी सिद्धान्त संजय से बहुत पहलेसे प्रचलित हैं । जैसे उसके अहिंसा - सिद्धान्त, अपरिग्रह - सिद्धान्त, कर्म - सिद्धान्त आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनके आद्यप्रवर्तक इस युगके तीर्थङ्कर ऋषभदेव हैं और अन्तिम महावीर हैं । विश्वास है उक्त विद्वान् अपनी जैनदर्शन व स्थाद्वाद के बारेमें हुई भ्रान्तियोंका परिमार्जन करेंगे और उसकी घोषणा कर देंगे ।
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