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________________ सप्तभङ्ग या सप्तभङ्गीके नामसे कहा जाता है। इस तरह जैनोंकी सप्तभङ्गी उपपतिपूर्ण ढङ्गसे सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है । पर संजयकी उपर्युक्त चतुर्भङ्गी में कोई भी उपपत्ति नहीं है । उसने चारों प्रश्नोंका जवाब 'नहीं कह सकता' में ही दिया है और जिसका कोई भी हेतु उपस्थित नहीं किया और इसलिये वह उनके विषयमें अनिश्चित है। राहुलजीने जो ऊपर जैनोंकी सप्तभङ्गी दिखाई है वह भ्रमपूर्ण है। हम पहले कह आये हैं कि जैनदर्शनमें 'स्याद्वाद' के अन्तर्गत 'स्यात्' शब्दका अर्थ 'हो सकता है' ऐसा सन्देह अथवा भ्रमरूप नहीं है उसका तो कथञ्चित् (किसी एक अपेक्षासे) अर्थ है जो निर्णयरूप है। उदाहरणार्थ देवदत्त को लीजिये, वह पितापुत्रादि अनेक धर्मरूप है । यदि जैनदर्शनसे यह प्रश्न किया जाय कि क्या देवदत्त पिता है ? तो जैनदर्शन स्याद्वाद द्वारा निम्न प्रकार उत्तर देगा १. देवदत्त पिता है-अपने पुत्रको अपेक्षासे-'स्यात् देवदत्तः पिता अस्ति' । २. देवदत्त पिता नहीं है-अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षासे- क्योंकि उनकी अपेक्षासे तो वह पुत्र, भानजा आदि है-'स्यात देवदत्तः पिता नास्ति' । ३. देवदत्त पिता है और नहीं है-अपने पुत्रकी अपेक्षा और अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा से--'स्यात् देवदत्तः पिता अस्ति च नास्ति च' ४. देवदत्त अवक्तव्य है-एक साथ पिता-पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-स्यात देवदत्तः अवक्तव्यः'। ५. देवदत्त पिता 'है-अवक्तव्य है'-अपने पुत्रकी अपेक्षा तथा एक साथ पिता-पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात् देवदत्तः पिता अस्त्यवक्तव्यः'। ६. देवदत्त 'पिता नहीं है-अवक्तव्य है'-अपने पिता-मामा आदिको अपेक्षा और एक साथ पिता पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे—'स्यात् देवदत्तः नास्त्यवक्तव्यः' । ७. 'देवदत्त पिता' है और नहीं है तथा अबवतव्य है'-क्रमसे विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनोंकी अपेक्षासे और एक साथ विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात् देवदत्तः पिता अस्ति नास्ति चावक्तव्यः' । यह ध्यान रहे कि जैनदर्शनमें प्रत्येक वाक्यमें उसके द्वारा प्रतिपाद्य धर्मका निश्चय कराने के लिये 'एवकारका' विधान अभिहित है जिसका प्रयोग नयविशारदोंके लिये यथेच्छ है-वे करें चाहे न करें । न करनेपर भी उसका अध्यवसाय वे कर लेते हैं। राहुलजी जब ‘स्यात्' शब्दके मूलार्थके समझने में ही भारी भूल कर गये तब स्याद्वादको भंगियोंके मेल-जोल करने में भूलें कर ही सकते थे और उसीका परिणाम है कि जैनदर्शनके सप्तभंगोंका प्रदर्शन उन्होंने ठीक तरह नहीं किया। हमें आशा है कि वे तथा स्याद्वादके सम्बन्धमें भ्रान्त अन्य विद्वान् भी जैनदर्शनके स्याद्वाद और सप्तभंगीको ठीक तरहसे ही समझने और उल्लेख करनेका प्रयत्न करेंगे। यदि संजयके दर्शन और चतुर्मनीको ही जैन दर्शनमें अपनाया गया होता तो जैनदार्शनिक उसके दर्शनका कदापि आलोचन न करते । अष्टशती और अष्टसहस्रीमें अकलंकदेव तथा विद्यानन्दने इस दर्शनकी जैसी कुछ कड़ी आलोचना करके उसमें दोषोंका प्रदर्शन किया है वह देखते ही बनता है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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