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द्वारा ही अपने ग्रन्थोंमें निबद्ध की गयी है और इससे उनके मीमांसा दर्शन और वेदान्त दर्शनके विशिष्ट अध्ययनका बोध होता है । आचार्य विद्यानन्दको अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्योंका विपुल साहित्य उत्तराधिकार के रूपमें प्राप्त हुआ था । उन समस्त ग्रन्थोंका उन्होंने गहन अध्ययन और मनन किया था तथा स्वरचित ग्रन्थोंमें उनका यथेष्ट उपयोग किया है। आचार्य विद्यानन्द पर उनके पूर्ववर्ती गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, अकलङ्क, कुमारनन्दि आदि जिन आचार्योंका विशेष प्रभाव पड़ा उनके विषय में प्रस्तावना में अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि, हेमचन्द्र आदि जिन आचार्योंपर विद्यानन्द और उनके ग्रन्थोंका जो प्रभाव पड़ा है उसका भी प्रस्तावनामें उनके समयादिके निर्णयपूर्वक विस्तारसे उल्लेख किया गया है ।
'आचार्य विद्यानन्दकी रचनाएँ' शीर्षकके अन्तर्गत आचार्य विद्यानन्दकी ९ रचनाओंका परिचय प्रस्तुत किया गया है । इनमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री और युक्त्यनुशासनालङ्कार ये तीन टीकात्मक रचनाएँ हैं तथा आप्त-परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, पत्र - परीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, श्रीपुर - पार्श्वनाथ स्तोत्र और विद्यानन्दमहोदय ये छह स्वतन्त्र रचनाएँ हैं । इन सभी रचनाओंके विषय में प्रस्तावनामें विस्तृत जान कारी दी गयी है ।
प्रस्तावना के अन्तमें आचार्य विद्यानन्दके समयपर ऊहापोह पूर्वक विस्तारसे विचार किया गया है। और उनके ग्रन्थोंके सूक्ष्म परीक्षण द्वारा विद्यानन्दकी पूर्वाविधि और उत्तरावधि निश्चित करते हुए उनका समय ईस्वी सन् ७७५ से ८४० निर्धारित किया गया है ।
इस प्रकार डॉ० कोठियाने प्रस्तावनामें प्रकृत ग्रन्थ और ग्रन्थकारके सम्बन्ध में सुव्यवस्थित, परिमाजिंत, प्रामाणिक और शोधपूर्ण विमर्श किया है ।
ग्रन्थके अन्त में सात परिशिष्ट दिये गए हैं जिनसे ग्रन्थकी उपयोगिता और भी बढ़ गयी है । प्रथम परिशिष्ट में आप्त- परीक्षाकी कारिकाओंकी अकारादि क्रमसे अनुक्रमणिका दी गयी है। द्वितीय परिशिष्ट में आप्त-परीक्षा में आये हुए अवतरण - वाक्योंकी सूची है। तृतीय परिशिष्ट में आप्त- परीक्षा में उल्लिखित ग्रन्थोंकी सूची है । चतुर्थ परिशिष्ट में आप्तपरीक्षा में उल्लिखित ग्रन्थकारोंकी सूची है । पञ्चम परिशिष्ट में आप्तपरीक्षा में उल्लिखित न्याय-वाक्य दिये गए हैं । षष्ठ परिशिष्ट में आप्त- परीक्षागत विशेष नामों तथा शब्दों की सूची दी गयी है । और सप्तम परिशिष्ट में आप्त- परीक्षाकी प्रस्तावना में चर्चित ग्रन्थकारोंका समय दिया गया है ।
आप्त- परीक्षाके सम्पादक और अनुवादक डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया जैनदर्शन के ही नहीं अपितु समग्र भारतीय दर्शनोंके तलस्पर्शी विद्वान् होनेसे इस गम्भीर दार्शनिक तत्वोंसे परिपूर्ण आप्त- परीक्षाका मूलानुगामी एवं सरल हिन्दी अनुवाद आप जैसे विद्वान् के द्वारा ही सम्भव है । आपने अपनी परिमार्जित लेखनी से सुबोध, सुग्राह्य और विशद शैलीमें आप्त परीक्षाका अक्षरशः जो अनुवाद किया है वह दर्शनशास्त्रके अध्येताओं को तो लाभप्रद है ही, साथ ही दर्शनशास्त्र के जिज्ञासु भी इसे पढ़कर आप्त- परीक्षाके रहस्योंको हृदयङ्गम कर सकते हैं । अनुवाद इतना स्पष्ट है कि साधारण संस्कृतज्ञ भी हिन्दी अनुवादके आधार से आप्त- परीक्षाकी कारिकाओं और संस्कृत टीकाको आसानीसे समझ सकता है । इस अनुवादसे साधारणजनको भी आप्तके स्वरूप निर्धारण करने में सुविधा होनेके साथ ही राष्ट्रभाषाका भी भण्डार बढ़ा है । वस्तुत आप्तपरीक्षा जैन वाङ्मयकी एक अमूल्य निधि एवं कृति है । सुयोग्य विद्वान् डा० कोठियाके द्वारा किये गए हिन्दी अनुवाद और शोधपूर्ण प्रस्तावनाके साथ इसके प्रकाशनसे इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है ।
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