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पदार्थ और मेरु आदि दूरस्थ पदार्थ किसीके ज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे हमारे अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदि । इस अनुमानसे सामान्य सर्वज्ञकी तथा निर्दोषत्व हेतुसे अर्हन्तके ही सर्वज्ञ होनेकी सप्रमाण सिद्धि को गयी है । आत्मा 'ज्ञ' स्वभाव है। सब आवरणकर्म और अज्ञानादि दोष दूर होनेपर आत्माके ज्ञानस्वभावमें सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ स्वयं प्रतिबिम्बित होते हैं । इस प्रकार अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष और तद्वान् (सर्वज्ञ) की सिद्धि सुधटित है।
ज्ञातव्य है कि प्रत्यक्षता और परोक्षता ये दोनों ज्ञाननिष्ठ धर्म हैं । ज्ञेय पदार्थ उनका विषय होनेसे 'विषयोधर्मस्य विषयेऽप्युपचारात्' के अनुसार वे भी उपचारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहे जाते हैं । इस प्रकार इस दूसरे प्रकाशमें प्रत्यक्ष और उसके भेदोंपर विशद प्रकाश डाला गया है ।
३. परोक्ष-प्रकाश इस तीसरे परोक्ष-प्रकाशमें प्रमाणके दूसरे भेद परोक्ष का विशद एवं सयुक्तिक निरूपण किया गया है । आरम्भमें उसका स्वरूप देते हए कहा है कि जो ज्ञान अविशद-अस्पष्ट-निर्मल नहीं होता वह परोक्ष है । यह ज्ञान पर-इन्द्रियों और मनके अधीन होनेसे उसमें विशदता-स्पष्टता-निर्मलता नहीं होती, जब कि प्रत्यक्ष परापेक्ष न होनेसे पूर्णतया विशद होता है। यही कारण है कि उसका लक्षण 'विशदं ज्ञानं प्रत्यक्षम्'-विशद ज्ञान किया गया है और इसका लक्षण 'अविशदं ज्ञानं परोक्षम्'-अविशद ज्ञान बतलाया है।
___ इसके पाँच भेद हैं-१ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान और ५ आगम । पूर्वानुभूत विषयका स्मरण स्मृति है। इसमें पूर्वानुभव (धारणाज्ञान) की अपेक्षा रहती है । यह प्रमाण है । यदि इसे प्रमाण न माना जाय तो स्मृति द्वारा गृहीत व्याप्ति (साध्य-साधनका अविनाभाव) का ज्ञान भी प्रमाण नहीं माना जा सकेगा और उसके अप्रमाण होनेपर तत्पूर्वक होनेवाला अनुमान भी अप्रमाण ठहरेगा । अतः स्मृति प्रमाण है । यदि कहीं विषयका अन्यथा स्मरण हो तो वह स्मृत्याभास है।
अनुभव और स्मरणपूर्वक होनेवाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । यह ज्ञान भी प्रमाण है, क्योंकि उसके द्वारा विषयका ज्ञान यथार्थ होता है। इसके एकत्वप्रत्यभिज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदि अनेक भेद हैं । इनका जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें विस्तृत निरूपण है। अभिनव धर्मभूषणने इनका संक्षेपमें किन्तु विशद प्रतिपादन किया है।
उपलम्भ (अन्वय) और अनुपलम्भ (व्यतिरेक) पूर्वक होनेवाला व्याप्ति (अविनाभाव) का ज्ञान तर्क है । इसी को ऊहाज्ञान कहते हैं । इस तकसे ही साध्य और साधननिष्ठ व्याप्तिका ज्ञान होता है और व्याप्तिज्ञान होनेपर अनुमान होता है। साधनका साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित न हो तो उस अनिश्चिताविनाभावि साधनसे साध्यका ज्ञान (अनुमान) नहीं हो सकता। यह तर्क भी प्रमाण है। इसे अप्रमाण माननेपर इस पूर्वक होनेवाला अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेगा । अतः अनुमानकी तरह यह तर्क भो प्रमाण है।
निश्चित साधनसे जो साध्यका ज्ञान किया जाता है वह अनुमान है । इसके दो भेद हैं-१ स्वार्थ और २ परार्थ । अनुमाता परोपदेशके विना स्वयं ही जब गहीताविनाभावि साधनसे साध्यका ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहलाता है। और वही अनुमाता दूसरेको, जिसने साध्य और साधनकी व्याप्ति गृहीत कर रखी है या करा दी जाती है, प्रतिज्ञा और हेतुका प्रयोग करके साधनसे साध्य का ज्ञान कराता है तो उस (श्रोता) का वह ज्ञान परार्थानुमान कहा जाता है । धर्मभूषणने इन दोनों अनुमानोंका बहुत ही स्पष्ट निरूपण किया है ।
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