________________
अभिमत दो आदि प्रमाण-संख्या विघटित हो जाती है। पर प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद माननेपर उनका परोक्षमें अन्तर्भाव हो जाता है । अतः प्रमाणके इन दो भेदोंका मानना युक्त है ।
धर्मभूषणने आचार्य अकलंकके अनुसार प्रत्यक्षका लक्षण 'विशदं प्रत्यक्षम्'-विशद ज्ञान बतलाया है । जो ज्ञान विशद-स्पष्ट-निर्मल है वह प्रत्यक्ष है। इसके दो भेद है-१. साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष । इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) के निमित्तसे जो ज्ञान होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं । ये चारों बहु आदि बारह प्रकारके अर्थ (पदार्थ) को विषय करने और पाँचों इन्द्रियोंसे होने के कारण ४x १२ x ५ = २४० संख्यक हैं। अवग्रह ज्ञानके दो भेद हैं-१ अर्थावग्रह और २ व्यंजनावग्रह । अर्थावग्रह पाँचों इन्द्रियोंसे होता है । उसकी अपेक्षासे ही उक्त भेद है। किन्तु व्यं जनावग्रह चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार (स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र) इन्द्रियोंसे बह आदि बारह प्रकारके अर्थमें होता है। अतः उसके भी १४४४१२ = ४८ भेद हैं । कूल २४० + ४८ = २८८ भेद इन्द्रियप्रत्यक्षके हैं। इसी प्रकार अनिन्द्रिय (मन) के निमित्तसे बह आदि बारह प्रकारके अर्थमें होने वाले अवग्रहादि चारों १x१२४४ = ४८ संख्यक हैं और इस प्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा अनिन्द्रियप्रत्यक्ष दोनोंके सब मिला कर २८८+ ४८ = ३३६ भेद हैं । इन सबको मतिज्ञान या सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
प्रत्यक्षका दसरा भेद पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। इसमें इन्द्रियों और मनकी अपेक्षा न होने तथा आत्मामात्रकी अपेक्षासे होनेके कारण इसे अतीन्द्रियप्रत्यक्ष कहा गया है। अतएव यह प्रत्यक्ष पूर्णतया विशद होता है। और इसीसे उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रतिपादित किया गया है। इसके दो भेद हैं-१. विकलपारमार्थिक और २. सकलपारमाथिक । विकल पारमाथिकके भी दो भेद हैं--१. अवधि और २. मनः पर्यय । ये दोनों प्रत्यक्ष कतिपय विषय (मतं द्रव्य) को ग्रहण करते हैं। इसीसे उन्हें विकल कहा गया है। सर्वद्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको जो युगवत् ग्रहण करता है वह सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष है और वह केवलज्ञान है।
बौद्ध दर्शनमें निर्विकल्प ज्ञानको प्रत्यक्ष मानकर उसकी उत्पत्ति स्वलक्षण (विशेषरूप अर्थ) से स्वीकार की गयी है । जो ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है वह उसीको जानता है, ऐसी विषयप्रतिनियमव्यवस्था है। धर्मभषण इसकी समालोचना करते हए कहते हैं कि कोई भी ज्ञान हो वह निश्चयात्मक (व्यवसायात्मक) ही होता है, निर्विकल्पक (अनिश्चयात्मक) नहीं। दूसरे, वह अर्थसे उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि ज्ञानका उसके साथ अन्वय और व्यतिरेक नहीं है । पदार्थके होने पर भी ज्ञान नहीं होता है और पदार्थके न होनेपर भी केशोंडुकज्ञान होता है। इस लिए पदार्थके साथ ज्ञानका अन्वय-व्यतिरेक घटित न होनेसे उनमें कार्यकारणभाव नहीं है । अत एव उसे स्वलक्षणजन्य मानना युक्ति संगत नहीं है ।
नैयायिक संनिकर्षको प्रत्यक्षका लक्षण मानते हैं। किन्तु वह अव्याप्त होनेसे निर्दोष लक्षण नहीं है। चक्षरिन्द्रिय विना संनिकर्षके ही अर्थको ग्रहण करती है क्योंकि वह अप्राप्यकारी है । उसे प्राप्यकारी सिद्ध करना यक्ति बाधित है। यदि वह प्राप्यकारी होतो तो वृक्षकी शाखा और चन्द्रमाका एक साथ ग्रहण नहीं हो सकता था। अतः संनिकर्ष अव्याप्त है । इसके सिवाय वह अचेतन है और अचेतनसे अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमा संभव नहीं, तो वह प्रमाणकरण भो नहीं हो सकता और तब वह प्रमाण कैसे हो सकता है और जब प्रमाण नहीं तब वह प्रत्यक्ष कैसे ? अतः संनिकर्ष असंभव दोषसे भी युक्त है ।।
जो अतीन्द्रियप्रत्यक्ष और तद्वान् सर्वज्ञको असम्भव मानते हैं उन्हें जवाब देते हुए धर्मभूषण उनकी अनुमानप्रमाणसे सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, रामरावणादिक कालव्यवहित
- ११०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org