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आचार्य पं० दरबारीलाल कोठियाजीको सम्पादन-मनीषाः 'प्रमाणप्रमेयकलिका के सन्दर्भमें
प्रो० श्रीरंजन सूरिदेव, पटना जैनदर्शनमें स्व एवं परको प्रकाशित या अवबोधित करनेवाले सम्यग्ज्ञानको प्रमाण माना गया है । जैन दार्शनिक, ब्राह्मण नैयायिकोंकी भांति इन्द्रिय-विषय और उसके सन्निकर्ष या सम्बन्धको प्रमाण नहीं मानते । जैनदृष्टिसे स्वार्थ और परार्थ अथवा प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका है। परार्थ तो परोक्ष ही होता है, परन्तु स्वार्थ, प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारका होता है। मतिज्ञानात्मक स्वार्थप्रमाण सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है और श्रुतज्ञानात्मक स्वार्थप्रमाण परोक्ष । अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। पहले न जाना गया-अपूर्व पदार्थ प्रमाणका विषय है और वस्तुकी सिद्धि अथवा हितप्राप्ति एवं अहित-परिहार इसका फल है। प्रमाणका भाव या ज्ञात विषयमें व्यभिचार (अन्यथात्व) का न होना प्रामाण्य है। प्रामाण्यको विद्यमानताके कारण ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता है और उसकी अविद्यमानताके कारण अप्रमाण ।
प्रमाणके द्वारा परीक्ष्य वस्तु प्रमेय कहलाती है। 'स्याद्वादमंजरी'के कर्ता आचार्य मल्लिषेणने कहा है : 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयम्, इति तु 'समीचीनं लक्षणं सर्वसङ्ग्राहकत्वात् ।' अर्थात्, द्रव्यपर्याय-रूप वस्तु ही प्रमेय है । प्रमेयका यही लक्षण सर्वसंग्राहक होनेसे समीचीन है। प्रमेयके भावको प्रमेयत्व कहते हैं। प्रमाणके द्वारा जानने योग्य वस्तुका स्व-पर-स्वरूप ही प्रमेय है । इसीलिए, प्रमाण और प्रमेयकी व्युत्पत्तिकी जाती है : 'प्रमोयते अनेनेति प्रमाणम्', 'प्रमीयते यत्तत् प्रमेयम् ।' अर्थात्, जिसके द्वारा सामान्य और विशेषस्वरूप, यानी द्रव्य और पर्याय-स्वरूप पदार्थको प्रमिति (परीक्षणपूर्वक जानकारी) की जाती है, वह प्रमाण है और उक्तविध प्रमाणका जो पदार्थ विषय बनता है, वह प्रमेय है । और फिर प्रमाणके द्वारा प्रमय वस्तुके अज्ञानकी निवृत्ति, उपादेयकी प्राप्ति, हेयके परित्याग और उपेक्षणीयकी उपेक्षा प्रमिति है तथा प्रमाण और प्रमितिका आधार व्यक्ति प्रमाता कहा जाता है। आचार्य नरेन्द्रसेन (१८वीं शती) द्वारा रचित कालजयी ग्रन्थ 'प्रमाणप्रमेयकलिका' में उक्त प्रमाण और प्रमेय के सन्दर्भको ही पाण्डित्यपूर्ण भाष्यगर्भ सूत्रात्मक शैलीमें पल्लवित किया गया है।
आचार्य नरेन्द्रसेनने अपनी यथोक्त बहदभाष्यगर्भ लघु कृतिको दो प्रकरणोंमें उपन्यस्त किया है: १. प्रमाणतत्त्वपरीक्षा तथा २. प्रमेयतत्त्वपरीक्षा । इन दोनों प्रकरणोंमें यथाक्रम प्रमाण और प्रमेयतत्त्वका पुंखानुपुंख सूक्ष्म विचार चिन्तनपूर्ण शास्त्रार्थ शैलीमें किया गया है, जिसमें पूर्वपक्षको दिखलाकर उत्तरपक्षकी सिद्धि की गई है । कहना न होगा कि वैदिक न्यायदर्शनपरम्परामें तर्कके मूल सिद्धान्तोंको सुगमतासे समझनेके लिए महान् ताकिक अन्नम्भट्टके 'तर्कसंग्रहका जो स्थान है, श्रमणन्यायदर्शन-परम्परामें वहीं स्थान प्रमाण और प्रमेयके प्रामाणिक प्रारम्भिक परिचयके लिए महान दार्शनिक आचार्य नरेन्द्रसेनकी 'प्रमाणप्रमेयकलिका' का है।
आचार्य नरेन्द्रसेनने अपनी इस महाघ कृतिके, प्रमाणतत्त्वकी मीमांसासे सम्बद्ध प्रथम प्रकरणमें अपने पूर्ववर्ती नैयायिक, जैसे प्रभाकर, भटजयन्त आदिके अतिरिक्त सांख्य-योगके आचार्यों द्वारा प्रतिपादित
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